Wednesday, September 16, 2009

बात अधूरी/ जीवन अधूरा

कल
मैंने बहुत कोशिशें की
तुम्हें पुकारूं
कई बार आवाजें दीं
पर
गला रूंधा ही रहा
नहीं निकल रही थी
कोई आवाज
महसूस हुआ
गले में बंधा है
कोई पट्टा
जिसके दबाव में
चुप है मेरी जुबान।
चाहा
उतार फेंकू
उसे पर नामुमकिन
पट्टा रूप बदलता रहा
बहुरूपिया की भांति
कभी
भूख/ अहम / जरूरत/ समय की मांग
बन जकड़े रखा गला।
जानता हूं
गले का घुटे रहना
जुबान का बंद होना
काफी कष्टकर
सामने
तुम प्रिय
पर
बंद जुबान
किसी ने सच ही कहा था-
चलो हो चुका मिलना
न तुम खाली / न हम खाली।
साथी
सच है
तुम बिन
बात अधूरी
जीवन अधूरा।
-०-
कमलेश पांडेय

Friday, September 4, 2009

अभिव्यक्ति के खतरे

मैं अक्सर
चुप ही रहता हूं
क्योंकि
अभिव्यक्ति के खतरे बहुत हैं।
मेमने की तरह मिमियाते भी
लोमड़ियां अपने दांत पैना करने लगती हैं।
अक्सर
ऍसा होता है
नहीं चाहते हुए
हमारी दुम हिलने लगती है।
मैं नहीं समझ पाता -
आदमी क्यों कर डर जाता है
एक दूसरे से ?
सच
जान भी होंठ
चुप्पी साध लेते हैं
अखबारों की सुर्खियां
झूठ परसते नहीं थकतीं
किंतु
भूख से कांपते होंठों पर
जयकार टिका रहता है।
सच कहता हूं
अंधेरा घना है
ऍसे में
बोलने का खतरा
उठाना कठिन
पर
नहीं बोलने व मुर्दा पड़े होने में
कोई विशेष फर्क नहीं
सो
मैं बोलता हूं
आप सब से कुछ
फुसफुसाते हुए गुपचुप
यकीन मानिये
हममें से
अधिकतर
आज ऍसा ही करते हैं।
-०-
कमलेश पांडेय

कंक्रीट का जंगल

छोटे से ताल में
उतरे हैं
धवल पाखी
कंक्रीट के इस जंगल में।
धड़के हैं
हौले से कुछ शब्द
किसी के सीने में
सफेद पन्नों पर उतर आये हैं
रक्ताभ, उष्मित शब्द।
कविता बनती है
पढ़ी, गुनी जाती
भुला- बिसरा दी जाती है।
नित्य पंख पसार
उड़ते आते हैं
श्वेत श्याम पाखी
जन्म लेती है
नित्य नयी कविता
पर
पाखियों की भांति ही
महाकाश में विलीन हो जाती है
अपनी जगह
बदस्तूर
मुस्कराता है
कंक्रीट का जंगल।
-०-
कमलेश पांडेय

कसी लगाम

मैं

कई बार

कुछ कहना चाहता हूं

पाता हूं

मुंह पर कसी है

लगाम

और अब वे

सपनों पर भी हक जमाने की कर रहे हैं

आपस में बात।

हम

धृतराष्ट्र बनने को अभिशप्त

कारण

दौड़ रहा है

हमारी धमनियों में उनका नमक


टंगी है हमारी आंखों

भयावह कल की तस्वीरें।

सच

हममें से हरेक

जानता- पहचानता है

पर

धर्मराज युधिष्ठिर तक ने सिखायी है

हमें भाषा- नरो वा कुंजरो की।

बड़ा ही अच्छा लगता है

अपनी छोटी जरूरतों को

पूरा होते देखना।

भूल जाता है आदमी

सपनों के टूटने की पीड़ा

बस उसे साधनी पड़ती है

धृतराष्ट्र होने की कला।

-०-

कमलेश पांडेय

Monday, August 17, 2009

युवा मन

कई बार
मैंने पाया
मन
काफी पहले बूढ़ा हो गया
छुटपन में
पीठ पर लाद दिये गये
शब्दों के बोझ
अब तक नहीं उतार पाया।
बेजान पत्थर बन चुके शब्द
भार स्वरूप
कब तक ढोऊं
उन्हें अकेले
साथ बंटाने
नहीं कोई हाथ
लंबी डगर- अकेला सफर, औ
सिर पर अगिया वैताल
से नाचते शब्द
सुख
पता नहीं मारीचिका क्यों बना ?
बच्चे की आंख नहीं देख पाती है
अब सपने
क्रिकेट की गेंद
भले खींचती
अपनी ओर
पर
इम्तहान में नंबरों के भूत
मां- पिता की झिड़कियां
बच्चे
कब बूढ़ों में हुए तब्दील
नहीं मालूम
सच है
ओ युवा मन
बदलो
तुम समय- परिभाषा- अर्थ
वरना
दिखेंगे
अब सिर्फ
बौने- झुके
हम-तुम।
-०-
कमलेश पांडेय

Sunday, August 16, 2009

आजादी

स्वतंत्रता दिवस के मौके पर

कल

मैंने सोचा

मिली कौन सी आजादी है

मुझे ?

अपने बास को देख

किसी

कुत्ते की पूंछ सी अचानक झुक जाता हूं

मैं क्यों ?

सुना मैंने

आजादी हमें देती है

बराबरी का अधिकार

सिर उठा बात कह पाने

का साहस

पर नहीं,

पाया मैंने

हममें काफी कुछ

अब भी

जंजीरों से जकड़ा है

हमारे सपने, हमारे वेतन

हमारी खुशियां, हमारा समय

सब कुछ तो

अब भी कैद है।

बस

कैद करने वाली मुठ्ठियां बदली हैं

बदले हैं वे गुनहगार चेहरे।

जिनके

हृदय में ठहाके लगा रहे हैं

खौफनाक भेड़िये

वे चेहरे पर हंसी बिखेरे

हमारे सामने परसते हैं

अपनी खैरात।

गुलामी अब भी कायम है

समय पर उनकी जकड़ है

सपनें बदशक्ल हैं

हम सब बंटे हैं।

-०-

कमलेश पांडेय

Saturday, August 8, 2009

इंतजार

है मुझे
इंतजार
कब होगी नयी सुबह
जब फूलों के बीच
बच्चे
हंसते- कूदते- खेलते दौड़ते दिखेंगे
उनकी पीठों पर नहीं होगा
भारी बोझ, निरर्थक शब्दों का गठ्ठर।
शब्द-
वाकई
असमर्थ
नहीं बदल पाते हैं
भाव- समाज- दुनिया।
अंधेरा छाया है
घना
मन व रिश्तों में
दिखती नहीं है राह
जिस पर उल्लास से
फुदकता है बालक कोई एक।
सच
आज नहीं दिखता
कहीं कोई बालक ?
पीठ पर शब्दों का गठ्ठर ढ़ोता
कुली
कब तब्दील हो जाता है
हममें
नहीं मालूम ?
मेटामारफोसिस
की प्रक्रिया निरंतर जारी है।
कभी वनैले सूअर
कभी घड़ियाल- भेड़िये का रूप धर
हम सब शब्दों को अब सिर्फ
बोते- खाते- चबाते हैं।
निरीह छटपटाता है
हमारे मन के कोने में
छिपा बालक
एक
पुकारता है
बचाओ, निकालो-
सभ्यता के
इस दलदल से
निरर्थक शब्दों के भार से।
उल्लसित
खेलना चाहता है
वह सार्थक शब्दों से
उसने चुन रखे हैं
अपने लिए
शब्द-
प्यार- खुशी- उछाह- मित्रता- संवेदना।
क्या
आप अपने गठ्ठर से दे सकते हैं
ये शब्द
उधार ?
थोड़ी देर के लिए सही
बाकी जीवन के लिए सही।
-०-
कमलेश पांडेय

Wednesday, August 5, 2009

थामो हाथ

बहुत चहक कर
मैंने बढ़ाये हैं
तुम्हारी ओर हाथ।
इस भीड़ में भी
अकेले हैं
कितने
हमारे कदम
नहीं मिलते
कभी एक साथ
एक जैसे पदचाप।
हर कदम की
अपनी अलग राह
अनजान मंजिलों
सुनसान डगर
मापते थके पांव चलने को मजबूर
हम-तुम
कब तक ?
बागीचों पर आज पहरा है
हवाएं भी बंगलों में बैठ इतरा रहीं।
कौन- कहां- किसका पहरा है
समझ पाना हुआ मुश्किल।
अपने दुःखों के बोझ उठाये
देखो
जा रहे
कितने डगमगाते पांव।
थोड़ी सांस बांटने
थोड़ी उजास बांटने
मैंने बढ़ाये हाथ
थामो थामो थामो
सब हाथ
यकीन मानो-
बदलना हो
जीवन
करो साथ
गहो हाथ।
-०-
कमलेश पांडेय

Tuesday, August 4, 2009

चुप रहो

चुप रहो
दिन अभी
प्यारे नहीं हुए
जिनसे थी उम्मीद
अब तक हमारे नहीं हुए।
किया था
हमने जिन पर जान से बढ़ भरोसा
मुंह मोड़ चले ऍसे, मानो
कभी अपने ही नहीं हुए।
चुप रहो
दिन अभी
रात से हैं स्याह
दिख रहे हैं
जो हमें रहवर
मुंह फेरते ही झट वे सय्याद हुए।
चुप बैठो
कि
दिन अभी बदलेगा
रात की कोख से
झांक सूरज मुस्करायेगा
यकीन
मानो
चुप रहने पर ही
सब कुछ बदलता है।
-०-
कमलेश पांडेय

अबोध बच्चा

कल मिला
मुझे
अबोध बच्चा एक
आंखों में आंसू
होंठों पर सिसकियों के साथ
न जाने
उसका अपना कौन, क्या कहां गुम था ?
सुनाई पड़ रही थी
उसके रोने की हिचकियां
चुप कराने की बहुत की कोशिश
नहीं माना
नहीं थम रहे थे आंसू
आंखों में टंगा था
किसी के लिए
मानो न कभी खत्म होने वाला इंतजार।
शायद
नहीं जानता था
रोने से नहीं होता कुछ भी हासिल।
कई आंखें होती ही हैं
प्रतीक्षा जिनकी अंतिम नियति
कई बार ऍसा होता है
हमारे मन का बच्चा भी रोता है
इस बात से बेखबर
कौन- कहां- क्या गुम है ?
वाकई
कई बार
कोई अपना नहीं होता
छोटा सा सपना भी सच नहीं होता।
थोड़ी सिसकियां, थोड़े गम
जीवन हमने बांटे कब ?
यकीन
नहीं आता
सुनो
ध्यान दे
किस कदर हमारा दिल रोता है।
-०-
कमलेश पांडेय

अबोध बच्चा

कल मिला

मुझे

अबोध बच्चा एक

आंखों में आंसू

होंठों पर सिसकियों के साथ

न जाने

उसका अपना कौन, क्या कहां गुम था ?

सुनाई पड़ रही थी

उसके रोने की हिचकियां

चुप कराने की बहुत की कोशिश

नहीं माना

नहीं थम रहे थे आंसू

आंखों में टंगा था

किसी के लिए

मानो न कभी खत्म होने वाला इंतजार।

शायद

नहीं जानता था

रोने से नहीं होता कुछ भी हासिल।

कई आंखें होती ही हैं

प्रतीच्छा जिनकी अंतिम नियति

कई बार ऍसा होता है

हमारे मन का बच्चा भी रोता है

इस बात से बेखबर

कौन- कहां- क्या गुम है ?

वाकई

कई बार

कोई अपना नहीं होता

छोटा सा सपना भी सच नहीं होता।

थोड़ी सिसकियां, थोड़े गम

जीवन हमने बांटे कब ?

यकीन

नहीं आता

सुनो

ध्यान दे

किस कदर दिल रोता है। -०-कमलेश पांडेय

Monday, August 3, 2009

रात

कितनी भी
अंधेरी - घनी
क्यों न हो रात
कोख में छिपी होती है
उजाले की किरण।
कितना भी
तुम क्यों न सताओ
किसी को-
अपने बच्चे को देख
उभरती है तुम्हारे चेहरे पर
अब भी मुस्कान।
अंधेरा-
नहीं पहचानने देता है
खुद की शक्ल
और
अंधेरे की उपज
तमाम अनबुझी कामनाएं
सुरसा की तरह
फैलाती हैं अपना मुख।
झांको, देखो
कैसे समायी है इसमें पीढ़ियां
हम-तुम।
अंधेरे से बचने को
जलायी हमने
तमाम
कंदीलें
तमाम
ईसा, बुद्ध, महावीर, मुहम्मद, नानक, गांधी
अब भी दिखा रहे
अंधेरे में राह।
सच
अंधेरा
बड़ा ही झीना है
थोड़े में ही कट जायेगा
बस
तुम बच्चों सी प्यारी मुस्कान बांटो
थोड़ी हंसी- थोड़ी खुशी
थोड़ी बातें - थोडे शब्द बांटो।
वाकई
चुप रहना
अंधेरे से भी भयावह होता है।
कहो कि
बातों से झरते हैं फूल
झरती है रोशनी
बातें उजाला हैं
बातें हैं दिन
आओ
अंधेरे से हम लड़े
थोड़े भी शब्द बांटे
थोड़ी- थोड़ी भी बात करें।
-०-
कमलेश पांडेय

Sunday, August 2, 2009

मित्र

बड़े दिनों बाद
तुमसे मिलना हुआ मित्र।
ऍसा लगा
मानो
खुद से ही मैं मिला
सच -
कठिन हो गयी है अब
खुद से खुद की मुलाकात,
ऍसे में तुमसे मिलना
मानो
किसी फूल का खिलना
तपती दोपहरी में बदली की छांव का पसरना
किसी अबोध के चेहरे पर निश्छल मुस्कान का उभरना।
अकेला होना
बड़ा ही दुष्कर
मानो-
जलती रेत
न खत्म होने वाला सफर
स्याह रात
अनजान डगर।
तुम हो
साथ है
बात है
जीवन है।
मित्र तुम्हारा होना
जीवन का होना
तुम्हें खोना
सब कुछ खोना है।
-०-
कमलेश पांडेय

Saturday, August 1, 2009

कब से

पुकारता हूं
मैं कब से तुम्हें
पर
तुम चुप क्यों हो ?
यह भी भला कोई बात हुई -
राह लंबी
डगर कठिन
भरी भीड़ में तमाम अकेले
अपने कांधे पर टिकाये सिर
चले जा रहे
न जाने किस राह
दिन के उजाले में भी
पहचानना मुश्किल
चलें किसके साथ
किस डगर
है कौन अपना हमसफर ?
तुम कहो
राह कटे
न चुप रहो।
हम पहचाने
राह बनती
साथ बनते
शब्दों से।
कहो
वरना एक थका सिर
अपने कांधे
न जाने कब तक टंगा रहेगा ?
चुप रहना
वाकई शिला सा होता है
जिंदगी में अनजान गुजर जाना
मानो मुर्दा होना होता है।
पत्थर व मुर्दा होने से बेहतर हैं
हम साथ चलें
कुछ बात करें।
-०-
कमलेश पांडेय
'www.blogvani.com'

Friday, July 31, 2009

सपने

मैं थोड़े सपने बोता हूं
थोड़े सपने बांटता हूं

बिना
सपनों के
मुझे अपने
होने पर ही शक होता है

नहीं
जानता
बिन सपनों के
आदमी कैसे होता है ?

थोड़े- बहुत
बचे हैं पास अपने

उन्हें सजोने
उन्हें बढ़ाने

मैं बोता सपने
बांटता थोड़े सपने।

बंधु
गर
अब भी
बचे हों
तुम्हारे सपने

आओ
मिल बांटे हम-तुम-
थोड़ी उन बच्चों को दें
जिनके पीठ 
खोखले शब्द भरे
बस्तों के बोझ से दब दुहरे

उन बूढ़ों को थोड़ी दें
जो अपने में निपट अकेले

उन युवकों में बांटे
जिनकी आंखों 
स्थायी टंगे नौकरियों के इश्तहार

थोड़ी उन आंखों में बोयें
जिनमें
है खुशियों की सिर्फ निपट प्रतीक्षा

बांटो- बांटो- बांटो
सपने।
सपने ही तो जीने की पहचान हैं।
-०-
कमलेश पांडेय

Thursday, July 30, 2009

मित्र

( मित्रता दिवस पर विशेष)
मित्र

अंधेरे में साथी जब
सूझती नहीं है राह
भय से
लरजते कांपते हैं पैर
सामने घना अंधेरा
राह अदृश्य।
सामने कौन- कैसा
पहचानना
मुश्किल।
वाकई घना है
अंधेरा,
दिन के उजाले में
भी
पहचानना मुश्किल
कई बार
अपने तक को ?
चेहरे की लकीरें
ढंक लेती हैं
नहीं पहचानने देती हैं
सही चेहरे, सही रास्ते, सही लोग।
वाकई
चेहरों को पहचानना
काफी कठिन होता है
कारण
अक्सर
हम खुद से भी
कतराते हैं
ऍसे में
साथी
कह पाना मुश्किल होता है
क्या
हम आदमी हैं ?
प्रश्न अनुत्तरित -
आओ
उत्तर ढूंढे
मिलकर हम-तुम
-०-
कमलेश पांडेय

Wednesday, July 29, 2009

तुम चुप क्यों हो ?

तुम चुप क्यों हो -
लंबे अरसे से
सोचता हूं मैं
वजह क्या है
होठों के सिले होने की
कई बार
मैंने देखा है
आंख मूंद कर
निकल जाते हैं हम
अपने साथ के लोगों को
बेचैन छोड़
उनकी अपनी पीड़ा के साथ
हमें भी तो
अपने सलीब ढोने पड़ते हैं
कई- कई ईसा
अपने सच को
ताजिंदगी
ढोते रह जाते हैं।
लहूलुहान आत्मा
को नहीं मिलती कोई राहत।
सच है-
जीवन आज सलीब बन चुका
और
सिसिफस की भांति शापित
हम सब
दुःखों को परवान
चढ़ाते रहते हैं।
दुःख तेरा हो या मेरा
वाकई
शिला सम भारी होता।
अक्सर वह
हमारे आंसुओं
हमारे होंठों
पर
टंगा होता।
-०-
कमलेश पांडेय

Tuesday, July 28, 2009

संकल्प

संकल्प

जिंदगी
क्यों इस कदर बदरूप होती जा रही ?

कल तक जिनके चेहरे थे
जाने -पहचाने

अचानक
उन चेहरों पर उभर आईं हैं
ऐसी लकीरें
जिन्हें देख
भेड़ियों का ख्याल उभरता है।

आदमी
अब
क्यों नहीं दिखता
सहज इन्सान की भांति

चारों ओर दिख रहे हैं
सिर्फ
रीछ, भालू, मगरमच्छ, घड़ियाल

जाने कहां
खोया है
एक आदमी। 

भयावह कंक्रीट के जंगल
में सांसें हैं
कहां गुम ?

एक फूल
एक मुट्ठी हवा
पकड़ने को बेताब
बच्चा
कूदते कूदते
थक हार गया

आंसू भी थम गये
सपने भी। 

कल
ऐसा न हो
आओ
हम संकल्प लें।

कमलेश पांडेय

Monday, June 29, 2009

सुबह

कई बार
नयी सुबह की प्रतीच्छा करते
रह जाते हैं हम
घोर अंधियारे में
नहीं सूझता
किस दिशा में है सही राह।
अंधेरे में ठोकर खाते
उलझते - गिरते
उलझाते - गिराते
बढ़ते जाते हैं हम।
सच -
अंधेरा घना, औ आंख में टंगे
रूपहले ख्वाब
बदरंग दुनिया
के स्याह रंग इतने मोहक
नहीं दिख पाती
वह संकरी पगडंडी
जो ले जाती
अंधेरी घाटी से दूर
नयी सुबह के उगते सूरज के पास।
सूरज औऱ सुबह
मिले
वहां हमें हमारी मुट्ठियों में ही
बस
हमने चलना चाहा
थोड़ा झुकना सीखा।
कमलेश पांडेय

Sunday, June 28, 2009

बहुत दिनों बाद

बहुत दिनों बाद
एक बार फिर कूकी कोयल
चुप बैठा काक भी कुछ बोला
टूटी मनहूस छायी चुप्पी
बोला
कुछ तो बोला।
पर तुम हो क्यों चुप
होंठ हैं क्यों सिले ?
आंखों से उतर खामोशी
जिह्वा तक है क्यों फैली ?
चुप रहना
न कुछ कहना
भला, यह भी कोई बात हुई -
कहते हैं -
न कुछ बोलो
तब भी
बोलती हैं आंखें
खोलती हैं राज आंखें
पर पत्थर सी बेजान आंखें
और
कस कर सिले होंठ
सच बताओ
साथी
तुम नये युग के इन्सान तो नहीं ?

Saturday, March 14, 2009

साहित्‍य को समर्पित

Tuesday, February 10, 2009

राजरंग


बढता चल तू , चाहे सामने हो अग्रिपथ कमलेश पांडेय



और हादसों भरा साल बीत ही गया। कैसी बिडंबना है कि अधिकतर समय साल बीतते-बीतते कोई न कोई जख्म दे जाता है। पिछले कुछ सालों से ऐसा ही दस्तूर बना हुआ है। कभी सुनामी, कभी अन्य प्राकृतिक दुर्घटनाएं, तो कभी संसद भवन पर हमला जैसे मानव जनित कांड। लेकिन इस साल नवंबर महीने में ही महज दस पाकिस्तानी युवकों ने मुंबई में इस कदर तबाही मचायी, जिसे बरसों भुला पाना संभव नहीं होगा। काम से लौट रहे तथा अन्य स्थानों के लिए रवाना होने शिवाजी छत्रपति टर्मिनल स्टेशन पर पहुंचे आम यात्रियों पर अत्याधुनिक आग्रेयास्त्रों से ताबडतोड गोलीबारी, कामाजी अस्पताल के सामने एसटीएफ के प्रमुख हेमंत करकरे, पुलिस के अतिरिक्त कमिश्नर अजय कामटे तथा अधिकारी विजय सालेस्कर को गोलियों से छलनी कर दिया जाना, सोलह पुलिस अधिकारियों, जवानों की शहादत, कई विदेशी तथा सैकडों बेकसूर आम लोगों की मौत को इतनी सहजता से भुलाया नहीं जा सकता है।

इस आतंकी घटना में पकडे गये एकमात्र जीवित पाकिस्तानी आतंकवादी अजमल आमिर कसाब ने स्वीकार किया है कि उस जैसे कई युवकों को लश्कर ए तैयबा की ओर से आतंकवादी हमले का प्रशिक्षण पाकिस्तान में दिया गया था। एक जिन्स की पैंट अपने गरीब रेहडी लगाने वाले पिता द्वारा नहीं दे पाने के कारण, घर छोड देने वाले कसाब ने आम लोगों की तरह पहले दिहाडी मजदूरी, फिर छोटे-मोटे अपराध किये। पर महात्वाकांक्षा उसे लश्कर ए तैयबा के चंगुल तक ले गयी। जिहाद के नाम पर भारत में मुसलमानों पर हो रहे कथित अत्याचार की वीडियो क्लिपिंग दिखा उसके मन में भारत के प्रति नफरत भरा गया। कमोबेश यही किस्सा अन्य पाकिस्तानी युवा आतंकवादियों के साथ भी घटा होगा। अपने वास्तविक दुश्मन से अनजान ये गुमराह युवा सहजता से ऐसे सियासतदानों के हत्थे चढ जाते हैं, जिनका मजहब दीन- ईमान नहीं बल्कि आतंक फैलाने के नाम पर दुनिया से इमदाद बटोरना है। धर्म के नाम पर धंधा बडा ही सहज होता है। बाज लोग सहजता से बहकावे में आ जाते हैं। सोचने- समझने की जहमत कौन मोल ले? कसाब भी कौन सा पढा लिखा समझदार था ? महज सात- आठ दर्जे तक पढा लडका। इस्लाम के नाम पर कुर्बान होने पर जन्नत मिलने और कुर्बान होने पर उसके परिवारवालों को डेढ लाख रुपये का मुआवजा मिलने का भरोसा। इतना काफी था, दुनिया से ऊबे युवा के गुमराह होने के लिए। जब बडे बडे विद्वान भी सामयिक भावनाओं में बह जाते हैं तथा समय तथा काल के सापेक्ष बयान जारी कर आग को बढावा देने लगते हैं, ऐसे में कुछ नासमझ युवकों के पास इतनी समझ ही कहां कि वे विचार कर पाते कि उनकी इन हरकतों का परिणाम क्या होगा? अब देखिये किस प्रकार केंद्रीय अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री ए आर अंतुले ने आतंकवादी हमले के दौर में हेमंत करकरे तथा अन्य दोनों अधिकारियों की शहादत पर ही सवाल खडा कर खुद तो अपनी फजीहत करायी ही, वहीं कांग्रेस को भी कटघरे में खडा कर दिया है। भले ही उन्होंने इस्तीफा दे दिया है लेकिन वे अपने सवाल पर डटे हुए हैं कि आखिरकार ये तीनों अधिकारी 26 नवंबर की रात कामा अस्पताल क्यों गये थे? अंतुले ने साफ- साफ तो नहीं कहा लेकिन इशारा सीधे सीधे साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर तथा मालेगांव विस्फोट से जुडे सैनिक अधिकारियों की सांठगांठ के जांच कार्य की ओर कर रहा था, जो आतंकवादी निरोधक दस्ता के प्रमुख हेमंत करकरे की निगरानी में जारी था। अंतुले ने खुल कर तो कुछ नहीं कहा लेकिन उनका संकेत था कि कहीं इन अधिकारियों की हत्या में मालेगांव विस्फोट से जुडे लोगों के हाथ तो नहीं थे? बहरहाल शहीद हेमंत करकरे की मौत के बाद गुजरात की भाजपा सरकार की ओर से शहीद की विधवा के लिए आर्थिक मदद की पेशकश की गयी, जिसे शहीद हेमंत की पत्नी ने नकार दिया। दुर्भाग्य है कि देश में सुरक्षा के मुद्दे पर भी जमकर राजनीति की जाती है। आरोप- प्रत्यारोप के बीच घोटाले भी देश में आम हैं। देश की जनता बोफोर्स तोप के नाम पर देश में वर्षों से जारी राजनीति से भली भांति परिचित है। इसी प्रकार सन 1992 में उछला श्रीरामचंद्र जन्मभूमि बनाम बाबरी मस्जिद का मुद्दा भी कथित बाबरी मस्जिद के ढांचे के टूट जाने के बाद अदालतों की धूल फांक रहाहै। मंदिर बनाने के लिए देश भर से एकत्र क्ये गये ईंट पता नहीं कहां की धूल फांक रहे हैं? चंदे का हिसाब मांगना तो भगवान के काम में पाप ही होगा? रामलला मंदिर से बेघर हो गये हैं तथा इन दिनों कडे पहरे में अस्थायी मंदिर में विराज रहे हैं। दरअसल इस मौके पर इस घटना की याद इसलिए आवश्यक है क्योंकि समझदारी से इतर देश का मध्यमवर्गीय समाज सामयिक धार्मिक, जातिगत तथा भाषाई उन्माद में डूब जाता है और लम्हों की खता को सदियां भुगतती हैं। धर्म की सही व्याख्या के अभाव में कठमुल्लापन आम मानसिकता पर हावी हो जाता है और षडंत्रकारी दिमाग बखूबी इन स्थितियों को भुनाना अच्छी तरह जानते हैं। कुछ लोगों के लिए राजनीति उनका धर्म होती है तो कुछ धर्म को ही अपनी राजनीति का आधार बना लेते हैं। कसाब तथा उसके समान दसों पाकिस्तानी युवकों के मन में इसी धार्मिक असहिष्णुता को उकसावा देकर उन्हें ऐसे अमानवीय कार्य के लिए प्रेरित कर पाना अत्यंत सहज था। देश को याद है, प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की सन 1984 में उनके दो सिख अंगरक्षकों द्वारा हत्या किये जाने की सूचना देश में फैलते ही हजारों निरपराध सिख परिवारों को किस कदर त्रासदी झेलनी पडी थी? आगजनी, हत्या, लूटपाट की बातों को याद दिलाने की आवश्यकता है क्या ? बहुत ही आसान होता है किसी की ओर उंगली उठा देना। परंतु याद रखने की जरूरत है कि किसी की ओर उंगली उठाने पर तीन उंगलियां हमें भी अपनी जांच पडताल करने को कहती हैं। बात भले ही कटु लगे लेकिन हमें ठहर कर सोचने की जरूरत है कि हमारे देश में धर्म, राजनीति, विश्वास, विकास, सहयोग, सहज व स्वस्थ जीवन के प्रति हमें कौन सा रवैया अपनाने की जरूरत है ? दुर्भाग्य है कि हम धर्म का मसला धार्मिक ठेकेदारों तथा राजनीति का मसला अधकचरे राजनीतिज्ञों पर छोड देते हैं, जो स्थितियों को हमारे लिए इतनी जटिल कर देते हैं कि हमारे सामने संस्कारों से जकडी हमारी मानसिकता के साथ बहकने के सिवा हमारे पास कोई चारा ही नहीं बचता है। हम सब कमोबेश उन्माद के शिकार सहजता से हो जाते हैं। आक्रोश के क्षणों में विवेक को खोकर महज तात्कालिक प्रतिक्रिया जताने में ही हमारी सार्थकता खत्म हो जाती है। द्विराष्ट्र के आधार पर भारत के विभाजन के बाद मिली आजादी के उपरांत पाकिस्तान के हुक्मरान तो पेट पर कपडे बांध कर हजार सालों तक भारत के साथ युद्ध करने के नारे लगा बाहबाही लूटने की कोशिश करते हैं, जबकि हकीकत में युद्ध के कारण वहां परिस्थितियां बिगडती ही गयीं। जिस मुहम्मद अली जिन्ना ने पाकिस्तान का सपना देखा और पाकिस्तान के निर्माण में जिनकी अहम भूमिका रही, उन्होंने भी वहां जम्हूरियत (लोकतंत्र) की ही कल्पना की थी, न कि उसके इस्लामिक राष्ट्र के स्वरूप की। बहरहाल बाद में इस्लामिक राष्ट्र घोषित होने के बाद भी क्या वहां इस्लामिक व्यवस्था (समानता का अधिकार)कायम है? लगातार फौजी शासकों के उलट-फेर के बीच वहां की जनता अपने लोकतांत्रिक अधिकारों से वंचित है तथा शासन के नाम पर वहां भी उन्हें शोषण का शिकार होना पड रहा है। कश्मीर का मुद्दा पाकिस्तान सालों से उछालता रहा है, जबकि दुनिया जानती है कि पाक कबायलियों के हमले से लाचार होकर कश्मीर रिसायत के राजा हरि सिंह ने भारत में अपनी रिसायत का विलय कर दिया था। वहीं पाकिस्तानी कब्जे वाले आजाद कश्मीर की क्या स्थिति है, दुनिया वाले बखूबी जानते हैं। धर्म के आधार पर किसी राष्ट्र की सार्वभौमिकता हमेशा कायम रहेगी, इस अवधारणा को भी पूरी तरह नकारते हुए तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में भाषायी आंदोलन तथा शोषण के खिलाफ मुक्ति संग्राम के नेतृत्व में आंदोलन छिडा, फलस्वरूप सन 1972 में बांग्लादेश नामक राष्ट्र का अभ्युदय हुआ। इस युद्ध में भारत और विशेषकर तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की भूमिका इक कदर अहम थी कि वह चोट अब तक पाकिस्तान नहीं भूल पाया है। इन बातों का प्रतिशोध वहां के हुक्मरान, फौज तथा आईएसआई वाले घुसपैठ तथा अन्य आतंकवादी तरीकों व जाली नोटों, मादक पदार्थों की तस्करी द्वारा ले रहे हैं। वहीं बांग्लादेश की आजादी के समय भारत में शरणार्थियों की संख्या इस कदर बेतहाशा बढी कि आज देश के सामने यह एक प्रमुख समस्या है। साथ ही सीमा पर भ्रष्ट सुरक्षाकर्मियों के कारण बांग्लादेश से मानव, हथियारों तथा उपभोक्ता सामग्रियों की तस्करी सरेआम जारी है। आज भारत में मुस्लिम समुदाय के साथ शोषण का आरोप लगाने वाले पाकिस्तान में झांक कर देखें, मस्जिदों में नमाज के दौरान चलती गोलियों की आवाजें उन्हें सुनायी देंगी। कई बार शिया व सुन्नियों के झगडे के बीच वहां सडकों पर टैंक तक उतारनी पडी है। कर्ज में डूबे बांग्लादेश तथा पाकिस्तान के विकास पर उन्हें नजर दौडानी चाहिए। किंतु हमारे देश में भी बडी विडंबनाएं हैं। एक ओर देश चांद पर पहुंच रहा है, वहीं अब तक हम सब देश में आम लोगों तक विकास के संसाधन नहीं पहुंचा पाये हैं, जिसके कारण उपजे विभेद से भारी असंतोष पनप रहा है। कभी देश के महज 6 जिलों में माओवादियों की पैठ थी लेकिन अब आंध्रप्रदेश, उडीसा, बंगाल, झारखंड,महाराष्ट्र, छत्तीसगढ, उत्तरप्रदेश के कई जिलों में माओवादियों का प्रभाव क्यों चिंताजनक रूप से बढ रहा है, इस पर ध्यान दिये जाने की जरूरत है। हिंसा हमें कहीं नहीं पहुंचाती। दहशतगर्दी से कुछ भी हासिल नहीं होता। इस बात को समझने और समझाने की निहायत जरूरत है। जरूरत है लोकतंत्र में दबे कुचले लोगों के आवाजों को बुलंद करने की। इसके लिए लोकतंत्र में तमाम व्यवस्थाएं हैं। संगठित होकर समाज में पिछडे लोग सामने आयें। अपने अधिकारों के प्रति सचेत हों। यह उनका नैतिक कर्तव्य है।