Saturday, August 1, 2009

कब से

पुकारता हूं
मैं कब से तुम्हें
पर
तुम चुप क्यों हो ?
यह भी भला कोई बात हुई -
राह लंबी
डगर कठिन
भरी भीड़ में तमाम अकेले
अपने कांधे पर टिकाये सिर
चले जा रहे
न जाने किस राह
दिन के उजाले में भी
पहचानना मुश्किल
चलें किसके साथ
किस डगर
है कौन अपना हमसफर ?
तुम कहो
राह कटे
न चुप रहो।
हम पहचाने
राह बनती
साथ बनते
शब्दों से।
कहो
वरना एक थका सिर
अपने कांधे
न जाने कब तक टंगा रहेगा ?
चुप रहना
वाकई शिला सा होता है
जिंदगी में अनजान गुजर जाना
मानो मुर्दा होना होता है।
पत्थर व मुर्दा होने से बेहतर हैं
हम साथ चलें
कुछ बात करें।
-०-
कमलेश पांडेय

8 comments:

  1. बहुत बढिया!!

    जिंदगी में अनजान गुजर जाना
    मानो मुर्दा होना होता है।
    पत्थर व मुर्दा होने से बेहतर हैं
    हम साथ चलें
    कुछ बात करें।

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  2. सामूहिकता की वकालत करती एक बेहतर कविता...
    स्वागत है....

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  3. बहुत ही सुन्दर रचना....आभार.


    चिट्ठाजगत में आपका स्वागत है.......भविष्य के लिये ढेर सारी शुभकामनायें.

    गुलमोहर का फूल

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  4. बहुत अच्छा लिखा है आपने । भाव और विचारों की सुंदर प्रस्तुति के साथ ही कुछ सामायिक प्रश्नों को भी आपने प्रमुखता से उठाया है। सटीक शब्दों केचयन और विचारशीलता के समन्वय से लेखन प्रभावशाली हो गया है।
    मैने अपने ब्लाग पर एक लेख लिखा है-इन देशभक्त महिलाओं केजज्बे को सलाम-समय हो तो पढें़ और कमेंट भी दें।

    http://www.ashokvichar.blogspot.com

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  5. ब्लॉग जगत में आपका स्वागत है

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  6. पत्थर व मुर्दा होने से बेहतर हैं
    हम साथ चलें
    कुछ बात करें

    Sahi likha hai........lajawaab, baat karte rahenge to jaan pahchaan ho hi jaayegi.....swagat hai aapka

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  7. मौन तथा एकांत आदमी को जड़ बना देते हैं. आपने बहुत सही कंटेंट पकडा है. आदमी का आदमी के साथ होना, बात करना नितांत आवश्यक है. मेरी ओर शुभकामनायें.

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