Monday, August 17, 2009

युवा मन

कई बार
मैंने पाया
मन
काफी पहले बूढ़ा हो गया
छुटपन में
पीठ पर लाद दिये गये
शब्दों के बोझ
अब तक नहीं उतार पाया।
बेजान पत्थर बन चुके शब्द
भार स्वरूप
कब तक ढोऊं
उन्हें अकेले
साथ बंटाने
नहीं कोई हाथ
लंबी डगर- अकेला सफर, औ
सिर पर अगिया वैताल
से नाचते शब्द
सुख
पता नहीं मारीचिका क्यों बना ?
बच्चे की आंख नहीं देख पाती है
अब सपने
क्रिकेट की गेंद
भले खींचती
अपनी ओर
पर
इम्तहान में नंबरों के भूत
मां- पिता की झिड़कियां
बच्चे
कब बूढ़ों में हुए तब्दील
नहीं मालूम
सच है
ओ युवा मन
बदलो
तुम समय- परिभाषा- अर्थ
वरना
दिखेंगे
अब सिर्फ
बौने- झुके
हम-तुम।
-०-
कमलेश पांडेय

Sunday, August 16, 2009

आजादी

स्वतंत्रता दिवस के मौके पर

कल

मैंने सोचा

मिली कौन सी आजादी है

मुझे ?

अपने बास को देख

किसी

कुत्ते की पूंछ सी अचानक झुक जाता हूं

मैं क्यों ?

सुना मैंने

आजादी हमें देती है

बराबरी का अधिकार

सिर उठा बात कह पाने

का साहस

पर नहीं,

पाया मैंने

हममें काफी कुछ

अब भी

जंजीरों से जकड़ा है

हमारे सपने, हमारे वेतन

हमारी खुशियां, हमारा समय

सब कुछ तो

अब भी कैद है।

बस

कैद करने वाली मुठ्ठियां बदली हैं

बदले हैं वे गुनहगार चेहरे।

जिनके

हृदय में ठहाके लगा रहे हैं

खौफनाक भेड़िये

वे चेहरे पर हंसी बिखेरे

हमारे सामने परसते हैं

अपनी खैरात।

गुलामी अब भी कायम है

समय पर उनकी जकड़ है

सपनें बदशक्ल हैं

हम सब बंटे हैं।

-०-

कमलेश पांडेय

Saturday, August 8, 2009

इंतजार

है मुझे
इंतजार
कब होगी नयी सुबह
जब फूलों के बीच
बच्चे
हंसते- कूदते- खेलते दौड़ते दिखेंगे
उनकी पीठों पर नहीं होगा
भारी बोझ, निरर्थक शब्दों का गठ्ठर।
शब्द-
वाकई
असमर्थ
नहीं बदल पाते हैं
भाव- समाज- दुनिया।
अंधेरा छाया है
घना
मन व रिश्तों में
दिखती नहीं है राह
जिस पर उल्लास से
फुदकता है बालक कोई एक।
सच
आज नहीं दिखता
कहीं कोई बालक ?
पीठ पर शब्दों का गठ्ठर ढ़ोता
कुली
कब तब्दील हो जाता है
हममें
नहीं मालूम ?
मेटामारफोसिस
की प्रक्रिया निरंतर जारी है।
कभी वनैले सूअर
कभी घड़ियाल- भेड़िये का रूप धर
हम सब शब्दों को अब सिर्फ
बोते- खाते- चबाते हैं।
निरीह छटपटाता है
हमारे मन के कोने में
छिपा बालक
एक
पुकारता है
बचाओ, निकालो-
सभ्यता के
इस दलदल से
निरर्थक शब्दों के भार से।
उल्लसित
खेलना चाहता है
वह सार्थक शब्दों से
उसने चुन रखे हैं
अपने लिए
शब्द-
प्यार- खुशी- उछाह- मित्रता- संवेदना।
क्या
आप अपने गठ्ठर से दे सकते हैं
ये शब्द
उधार ?
थोड़ी देर के लिए सही
बाकी जीवन के लिए सही।
-०-
कमलेश पांडेय

Wednesday, August 5, 2009

थामो हाथ

बहुत चहक कर
मैंने बढ़ाये हैं
तुम्हारी ओर हाथ।
इस भीड़ में भी
अकेले हैं
कितने
हमारे कदम
नहीं मिलते
कभी एक साथ
एक जैसे पदचाप।
हर कदम की
अपनी अलग राह
अनजान मंजिलों
सुनसान डगर
मापते थके पांव चलने को मजबूर
हम-तुम
कब तक ?
बागीचों पर आज पहरा है
हवाएं भी बंगलों में बैठ इतरा रहीं।
कौन- कहां- किसका पहरा है
समझ पाना हुआ मुश्किल।
अपने दुःखों के बोझ उठाये
देखो
जा रहे
कितने डगमगाते पांव।
थोड़ी सांस बांटने
थोड़ी उजास बांटने
मैंने बढ़ाये हाथ
थामो थामो थामो
सब हाथ
यकीन मानो-
बदलना हो
जीवन
करो साथ
गहो हाथ।
-०-
कमलेश पांडेय

Tuesday, August 4, 2009

चुप रहो

चुप रहो
दिन अभी
प्यारे नहीं हुए
जिनसे थी उम्मीद
अब तक हमारे नहीं हुए।
किया था
हमने जिन पर जान से बढ़ भरोसा
मुंह मोड़ चले ऍसे, मानो
कभी अपने ही नहीं हुए।
चुप रहो
दिन अभी
रात से हैं स्याह
दिख रहे हैं
जो हमें रहवर
मुंह फेरते ही झट वे सय्याद हुए।
चुप बैठो
कि
दिन अभी बदलेगा
रात की कोख से
झांक सूरज मुस्करायेगा
यकीन
मानो
चुप रहने पर ही
सब कुछ बदलता है।
-०-
कमलेश पांडेय

अबोध बच्चा

कल मिला
मुझे
अबोध बच्चा एक
आंखों में आंसू
होंठों पर सिसकियों के साथ
न जाने
उसका अपना कौन, क्या कहां गुम था ?
सुनाई पड़ रही थी
उसके रोने की हिचकियां
चुप कराने की बहुत की कोशिश
नहीं माना
नहीं थम रहे थे आंसू
आंखों में टंगा था
किसी के लिए
मानो न कभी खत्म होने वाला इंतजार।
शायद
नहीं जानता था
रोने से नहीं होता कुछ भी हासिल।
कई आंखें होती ही हैं
प्रतीक्षा जिनकी अंतिम नियति
कई बार ऍसा होता है
हमारे मन का बच्चा भी रोता है
इस बात से बेखबर
कौन- कहां- क्या गुम है ?
वाकई
कई बार
कोई अपना नहीं होता
छोटा सा सपना भी सच नहीं होता।
थोड़ी सिसकियां, थोड़े गम
जीवन हमने बांटे कब ?
यकीन
नहीं आता
सुनो
ध्यान दे
किस कदर हमारा दिल रोता है।
-०-
कमलेश पांडेय

अबोध बच्चा

कल मिला

मुझे

अबोध बच्चा एक

आंखों में आंसू

होंठों पर सिसकियों के साथ

न जाने

उसका अपना कौन, क्या कहां गुम था ?

सुनाई पड़ रही थी

उसके रोने की हिचकियां

चुप कराने की बहुत की कोशिश

नहीं माना

नहीं थम रहे थे आंसू

आंखों में टंगा था

किसी के लिए

मानो न कभी खत्म होने वाला इंतजार।

शायद

नहीं जानता था

रोने से नहीं होता कुछ भी हासिल।

कई आंखें होती ही हैं

प्रतीच्छा जिनकी अंतिम नियति

कई बार ऍसा होता है

हमारे मन का बच्चा भी रोता है

इस बात से बेखबर

कौन- कहां- क्या गुम है ?

वाकई

कई बार

कोई अपना नहीं होता

छोटा सा सपना भी सच नहीं होता।

थोड़ी सिसकियां, थोड़े गम

जीवन हमने बांटे कब ?

यकीन

नहीं आता

सुनो

ध्यान दे

किस कदर दिल रोता है। -०-कमलेश पांडेय

Monday, August 3, 2009

रात

कितनी भी
अंधेरी - घनी
क्यों न हो रात
कोख में छिपी होती है
उजाले की किरण।
कितना भी
तुम क्यों न सताओ
किसी को-
अपने बच्चे को देख
उभरती है तुम्हारे चेहरे पर
अब भी मुस्कान।
अंधेरा-
नहीं पहचानने देता है
खुद की शक्ल
और
अंधेरे की उपज
तमाम अनबुझी कामनाएं
सुरसा की तरह
फैलाती हैं अपना मुख।
झांको, देखो
कैसे समायी है इसमें पीढ़ियां
हम-तुम।
अंधेरे से बचने को
जलायी हमने
तमाम
कंदीलें
तमाम
ईसा, बुद्ध, महावीर, मुहम्मद, नानक, गांधी
अब भी दिखा रहे
अंधेरे में राह।
सच
अंधेरा
बड़ा ही झीना है
थोड़े में ही कट जायेगा
बस
तुम बच्चों सी प्यारी मुस्कान बांटो
थोड़ी हंसी- थोड़ी खुशी
थोड़ी बातें - थोडे शब्द बांटो।
वाकई
चुप रहना
अंधेरे से भी भयावह होता है।
कहो कि
बातों से झरते हैं फूल
झरती है रोशनी
बातें उजाला हैं
बातें हैं दिन
आओ
अंधेरे से हम लड़े
थोड़े भी शब्द बांटे
थोड़ी- थोड़ी भी बात करें।
-०-
कमलेश पांडेय

Sunday, August 2, 2009

मित्र

बड़े दिनों बाद
तुमसे मिलना हुआ मित्र।
ऍसा लगा
मानो
खुद से ही मैं मिला
सच -
कठिन हो गयी है अब
खुद से खुद की मुलाकात,
ऍसे में तुमसे मिलना
मानो
किसी फूल का खिलना
तपती दोपहरी में बदली की छांव का पसरना
किसी अबोध के चेहरे पर निश्छल मुस्कान का उभरना।
अकेला होना
बड़ा ही दुष्कर
मानो-
जलती रेत
न खत्म होने वाला सफर
स्याह रात
अनजान डगर।
तुम हो
साथ है
बात है
जीवन है।
मित्र तुम्हारा होना
जीवन का होना
तुम्हें खोना
सब कुछ खोना है।
-०-
कमलेश पांडेय

Saturday, August 1, 2009

कब से

पुकारता हूं
मैं कब से तुम्हें
पर
तुम चुप क्यों हो ?
यह भी भला कोई बात हुई -
राह लंबी
डगर कठिन
भरी भीड़ में तमाम अकेले
अपने कांधे पर टिकाये सिर
चले जा रहे
न जाने किस राह
दिन के उजाले में भी
पहचानना मुश्किल
चलें किसके साथ
किस डगर
है कौन अपना हमसफर ?
तुम कहो
राह कटे
न चुप रहो।
हम पहचाने
राह बनती
साथ बनते
शब्दों से।
कहो
वरना एक थका सिर
अपने कांधे
न जाने कब तक टंगा रहेगा ?
चुप रहना
वाकई शिला सा होता है
जिंदगी में अनजान गुजर जाना
मानो मुर्दा होना होता है।
पत्थर व मुर्दा होने से बेहतर हैं
हम साथ चलें
कुछ बात करें।
-०-
कमलेश पांडेय
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