Thursday, September 18, 2008

नयी भोर

किसी नयी भोर
की तलाश में
गीता गाता
सो गया था
पहला कवि
पृष्ठ दर पृष्ठ
गुंजरित रहा
एक ही शब्द -
प्रेम।
अंधेरे ने जगायी
जुगुप्सा
उत्पन्न किये मतभेद
कवि की यही पीड़ा
चिर प्रेम- नयी सुबह।
पर,
जान लो-
प्रेम के लिए
नितांत आवश्यक-
साम्य,
नयी सुबह के लिए-
एक समाज।
-००-

आजाद सपनों के लिए

कई बार मैं
अपने बेतरतीब सपने
तरतीब में सजाना चाहता हूं,
पाता हूं -
सपनों के छोर
किसी की मुट्ठियों में कैद हैं।
यकीन मानिए-
कई बार बिना
सपनों के अपने होने पर
मुझे विश्वास नहीं होता।
बिना सपनों के
भला आदमी होता है।
लेकिन साथी-
कसी मुट्ठियों में जकड़े सपनों
को पाने का सपना
अभी अधूरा है-
इसी संघर्ष के लिए है- कविता।
-००-
फासले लंबे हैं

स्वप्न ही तो था,
देखा मैंने
मिट गया था फासला
आदमी से आदमी के बीच का।
धुआं उगलती
अधकच्ची लकड़ियों पर
रोटी थापते हाथ
और
ओवनों में कार्यरत चिकने हाथ।
मैं समझा-
अब नहीं है फासला।
कर्मठ हैं सभी हाथ
और
कर्मठ हाथों के बीच नहीं होते फासले।
पर, पाया
अधकच्ची लकड़ियों
पर बनी चीकट रोटी
मलुआ को खिला
वे हाथ
अब
ओवन की सफाई में जुट गये हैं
और
ओवन वाले हाथ
संवार रहे अपने नाखून।
टूटा स्वप्न,
अभी तय करनी हैं मंजिलें
नहीं मिटा है फासला
आदमी से आदमी के बीच का।
-००-

फीनिक्स जीवित है

फीनिक्स की तरह
एक बार फिर
अपने क्षार से
उठ खड़ा होऊंगा, मैं।
मेरी आस्था
मुझे क्षार
नहीं होने देगी।
बाध्य करेगी मुझे
तुम फिर- फिर जियो
और
नित नयी आस्था-अनास्था
राग-रंग
अनुराग-विराग के भर रंग
नये संकल्प के संग
एक शिशु फीनिक्स
आसमान में उड़ान के लिए
तैयार मिलेगा
-००-

मदारी और डुगडुगी

मैं मदारी हूं
डुगडुगी बजाता हूं,
बजते हैं
तरह-तरह के बोल।
कुछ
आप सुनते हैं
कुछ गुनते हैं
कुछ चुप रह भूलते हैं।
हां---
सारे राग
मैं एक साथ नहीं बजाता
कुछ
आप पर भी छोड़ता हूं -
सुनिये- समझिये.....

डुगडुगी बजती है
कभी मध्यम, कभी तेज
पर, जानते हैं, आप
डुगडुगी का अपना स्वर नहीं

डुगडुगी में आप ही बोलते हैं
डुगडुगी में आप ही होते हैं।
सच-
कई बार ऐसा भी होता है
आप होते हैं
पर आप नहीं होते हैं।

यकीन मानिये....
जब-जब ऐसा होता है
तभी
डुगडुगी का स्वर बदलता है
और
जब स्वर बदलता है
तभी दुनिया करवट बदलती है।
हां, हुजूर
जब आप अपने आप में नहीं होते
तभी तो वह सब कुछ घटता है
जिसके विरोध में
डुगडुगी आप बज उठती है।
-००-

कठपुतली

कई बार
ऐसा भी होता है,
बात समझते हुए भी
समझ नहीं आती।
यकीन मानिए-
हम कठपुतली भर होते हैं।
-००-
अधूरा विषपान

शिव
सुना था
तुमने पान किया था
संपूर्ण मंथित गरल
पर आज भी
क्यों
उबाल मारता है
धमनियों में विष
और
बिखर उठता है लहू सड़कों पर
दंगों के बाद।
-००-

किसकी गलती

मैं तूलिका उठा
सुनहरे चित्र
आंकना चाहता हूं
पर
सारे रंग स्याह क्यों

इन्सान की जगह भेड़ियों
और
जानवरों की जगह
इन्सान के अक्श
खुद ब खुद
उभर आये क्यों
हैरान
सोचता हूं
यह मेरी गलती है
या किसी और की।
-००-
यक्ष प्रश्न

दंगे में मृत
अबोध के होठ
ठहरा था
यक्ष प्रश्न-
मेरा कसूर क्या है।

पर पूछता हूं, आपसे-
क्यों चुप हैं।
-००-
गठजोड़

कैसा लगता है, तुम्हें
जब कुछ
शब्द आपसे में गठजोड़ कर लेते हैं
और बन जाती है कविता।
क्या वैसा ही लगता है-
जब छा जाते हैं
गठजोड़ करते राजनीति के वामन
और लघु
हो उठता है मानव।
सच है....
पीठ पर बस्ता लादे
बच्चे की आंखों के भाव
सहसा बदल जाते हैं
जब
वे पाते हैं
कविता आज महज
आंखों में टिके स्वप्न का नाम भर है
वामनों ने माप रखी है पृथ्वी।
-००-
सुनामी तो सिर्फ एक नाम भर है

अभी - अभी
वह क्षण यहां से गुजर गया
अपने सहस्त्र फण में कुछ फण
उसने बदले थे
हां-
भार भी तो बढ़ चला है
खासकर
जबसे जमकर भारी हो चले हैं-
रिश्ते-भाव-संवेदना-उष्मा-संबंध।
बोझिल होती
जिंदगी- क्षण
ऐसे में वाहक को आराम कहां।
हरक्युलिस ने भी तो कांधे बदलने चाहे थे
दरअसल
थके कांधे
अब भार उठाने में अक्षम
किंतु
भार हो
किसके कांधे- किसके सिर
कौन करेगा वहन
सिर्फ वहन।
बोझ दबे लरजते पांव
देख कांपा- फटा होगा
उसका सीना
जिसने अपने गर्भ में धारण किया
अन्न- संतति।
खारे आंसू बहुत कुछ गला सकते हैं-
मृदुल मृदु की बिसात ही क्या।
सुनामी को सिर्फ एक नाम भर है।
सच-
जिन्होंने सिर्फ ढोया भार
शापित सिसिफस की भांति,
सभ्यता जिनके कंधे रही
वेताल की भांति सवार-
के तेजाबी आंसुओं से
विगलित
उसने बदला होगा फण।
हां
धड़का होगा पृथ्वी का हृदय
और सुनामी गुजरा होगा।
हर उन आंखों
रोज ऐसे लाखों सुनामी गुजरते हैं
जिनके सिर तुम सवार।
दीगर है
तुम अडिग
ओ प्रस्तर प्रतिमा।
-००-
प्रतीक्षा में

मैं जानता हूं
नववर्ष
समय के सुनहले पक्षी के पांखों सवार
नहीं उतरेगा
हमारे घर- आंगन।
नहीं होगी कोई ऐसी नयी सुबह
जब चहक उठेंगी दिशाएं।
रोज की तरह
सूरज उठा देगा हमें
कारखाने के सायरन की तरह
और
जल्द तैयार हो
निकल पड़ेंगे हम
सड़कों पर
आने वाले
किसी सुनहले समय की प्रतीक्षा में।
-००-

सुबह होगी

सुबह होगी
चिड़ियाएं फुदकेंगी
बच्चे दौड़ेंगे
कारखानों के चक्के चलेंगे
खेतों की फुनगी पर
सुनहली बालियां झूमेंगी।

सुबह होगी
अंधेरा छटेगा
आंखें मिलेंगीं
पहचानेंगे चेहरे
झुकेंगी- शर्मसार होंगी आंखें
और
कंधे पर
हथियार नहीं
हल होगा।
सुबह जरूर होगी।
-००-
एक गीत

एक गीत
तुम्हारे थके कांधे के लिए
पसीने से भीगी
तुम्हारी लट के लिए,
उस क्षण के लिए
जब
आकाश ताकते
तुम बैठ जाते हो थक-हार।
एक गीत
खुशी के छलकते कतरे के लिए
तुम्हारी आंखों
झिलमिलाते टंगे सपनों के लिए
और
उस क्षण के लिए
जब अंतस में तुम्हारे
उमड़ता है उल्लास।
एक गीत ही तो
मेरी भेंट
जिससे
कह-सुन पाते
हम अपनी बात।
-००-

विष रोपण

मैं विष बोता हूं
वर्तमान के सीने में।
जानता हूं
विष रोपण का फल
पर यही मेरा व्यापार।
विष ही मेरे लिए सोना उगलता
जिसकी अधिकता से कायम
मेरी चौधराहट।
क्योंकि बांट सकता हूं
अनुदान
कुत्ते के टुकड़ों की तरह
भोपाल हो या मैक्सिको
फर्क नहीं पड़ने देता मैं
हो यह मेरे विष का प्रतिफल
या प्रकृति की हो विध्वंसक लीला।
विष बहुत मधुर
लोग लालायित
स्वयं विषपान के लिए
क्योंकि
अनुदान के खोल लपेट
दोस्ती और फर्ज के नाम देता मैं भेंट
और
चाहता हूं
कि उसका पड़ोसी भी
मेरी ओर हाथ बढ़ाये
जिससे
थमा संकू
उसके हाथों में भी
कोई विष वेल।
मैं सफल अपने व्यापार में
क्योंकि
तमाम विष वृक्ष लहरा - लहरा
कर रहे हर्ष प्रकट।
सच
दुनिया बहुत
मधुर विषैली है।
-००-

संचेतना

जडांधकार
को बेधती हुई
रोशनी की किरण
कौंधी है आज
शब्द
मूर्तरूप
बिखेर रही हैं रश्मियां
और
छंट रहा है
क्षितिज का तिमिर।
-००-

फर्क

जड़ हो जाते हैं जब हम
संवेदना शून्य
और आंखें देखते हुए भी नहीं देखतीं
मन
नहीं ग्राह्य कर पाते हैं शब्दों के अर्थ
तब
कविता के धड़कते शब्द
जगाते हमारी
संचेतना।
फर्क महसूस कर पाते हम
आदमी और भेड़िये के बीच का
-००-

Sunday, September 14, 2008

कल ऐसा ही होगा

कल उनका जिक्र
सिर्फ दस्तावेजों में होगा
जिन्होंने
कैद कर रखा है
चांद
अपनी तिजोरियों में

यकीन मानो
कल
सिर्फ उनका है
जिनके हाथों धधक रहा है
आज सूरज

सच कहता हूं -
कल ऐसा ही होगा
बस
थोड़ी सी आग बांट लो।
-००-
अंतर्संबंध

मंदिर- मस्जिद के झगड़े
और
सोमालिया के भूखे मृतकों के बीच
अंतर्संबंधों को जानते हो, मित्र
राजपथ-
आज राजपथों पर छा गये हैं
नरपशु
और
जनता सुरक्षित नहीं।
-०००

एक ही स्वर

मंदिरों के श्लोक
मस्जिदों के अजान
चर्चों की घंटियों में गूंजतू
ध्वनि को पहचाना है
तुमने साथी

सुनो ध्यान से-
सदियों से गूंज रही है
एक ही आवाज,
एक नयी सुबह
जब
नहीं होगा बच्चों की आंखों में कोई खौफ
तितलियां होंगी फूलों में मशगूल
माताएं भोजन पकाने में व्यस्त
तमाम पिता कार्यरत
और
हौले से घिरती
सुहानी शाम
-००-

संघर्ष परिलक्षित

अंधेरे से उजाले के बीच
जाने का प्रयास करती
हमारी पीढ़ी का संघर्ष
क्या लक्षित नहीं कर पा रहे हो
ओ धृतराष्ट्र
या
जब
दहकती धमनियों के रक्त
की लालिमा से
प्रभासित होगा दिंगत
और
न्याय पाने हेतु
उठ खड़े होंगे
झुकी पीठ औ कमर वाले लोग,
यकीकन -
तब तुम्हारी आंख खुलेगी
धृतराष्ट्र
विश्वास करो-
मैं देख रहा हूं
भींचती मुट्ठियां
और तनते कमर
-००-
उच्छवास

मैं शब्दों से हथियार गढ़ता हूं
पूछो
उसका क्या इस्तेमाल करता हूं
उनके विरुद्ध
जिन्होंने शब्दों को कैद रखा मुट्ठियों में,
भावनाएं जिनकी क्रीतदासी हैं
इन दानवों के विरुद्ध हथियार भांजता हूं।

मैं
शब्दों से कुदाल गढ़ता हूं
कृषक श्रम-स्वेद रत
उनके निमित्त कुदाल गढ़ता हूं
मैं
शब्दों से ताप हरता हूं
संताप हरता हूं
उस श्रमिक का
जो श्रम क्लांत प्रतीक्षा में
घर लौटने की

शब्द मेरे समीप
हथियार- फूल- हास- परिहास
पर इससे बढ़कर
उस सर्जक के उच्छवास
जो तनकर खड़ा होता है
किसी रावण के विरुद्ध।
-००-

परिवर्तन
झरते हैं
फूल से शब्द-
जब मचलती है
किसी हृदय में कविता।
वे ही शब्द
धारदार अस्त्र बन उठते हैं
जब
कोई किसी का अधिकार लूटता है।
प्राणहंता बन उठते हैं
शब्द
जब
रावण किसी की अस्मिता को
अपनी अशओक वाटिका में
कैद कर लाता है।

हाहाकार मचाते आते हैं
अग्निल शब्द
और जल उठती है
सोने की लंका

वे ही शब्द
क्लांत- बेसुध
हो उठते हैं,
जब
किसी वनवासी राम
के होठों बजने लगती है सत्ता की बांसुरी
और
सीता भेज दी जाती है वनवास
शब्द
हार मान चुप बैठ जाते हैं
जब
उनमें
सत्ता का दंभ समाता है

Saturday, September 13, 2008

कमलेश पांडेय की कविताएं

  • बदलेगी दुनिया

उन्हें विश्वास है -
वे ही बदलेंगे सूरते-हाल,
पर मिट्टियों और ग्रीज में सने लोग
अभी
गढ़ रहे हैं
दुनिया।
यकीन मानो-
कल,
जब
तुम्हारी आंखे खुलेंगी-
दुनिया बदली मिलेगी।

कल