Monday, June 29, 2009

सुबह

कई बार
नयी सुबह की प्रतीच्छा करते
रह जाते हैं हम
घोर अंधियारे में
नहीं सूझता
किस दिशा में है सही राह।
अंधेरे में ठोकर खाते
उलझते - गिरते
उलझाते - गिराते
बढ़ते जाते हैं हम।
सच -
अंधेरा घना, औ आंख में टंगे
रूपहले ख्वाब
बदरंग दुनिया
के स्याह रंग इतने मोहक
नहीं दिख पाती
वह संकरी पगडंडी
जो ले जाती
अंधेरी घाटी से दूर
नयी सुबह के उगते सूरज के पास।
सूरज औऱ सुबह
मिले
वहां हमें हमारी मुट्ठियों में ही
बस
हमने चलना चाहा
थोड़ा झुकना सीखा।
कमलेश पांडेय

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