Saturday, August 8, 2009

इंतजार

है मुझे
इंतजार
कब होगी नयी सुबह
जब फूलों के बीच
बच्चे
हंसते- कूदते- खेलते दौड़ते दिखेंगे
उनकी पीठों पर नहीं होगा
भारी बोझ, निरर्थक शब्दों का गठ्ठर।
शब्द-
वाकई
असमर्थ
नहीं बदल पाते हैं
भाव- समाज- दुनिया।
अंधेरा छाया है
घना
मन व रिश्तों में
दिखती नहीं है राह
जिस पर उल्लास से
फुदकता है बालक कोई एक।
सच
आज नहीं दिखता
कहीं कोई बालक ?
पीठ पर शब्दों का गठ्ठर ढ़ोता
कुली
कब तब्दील हो जाता है
हममें
नहीं मालूम ?
मेटामारफोसिस
की प्रक्रिया निरंतर जारी है।
कभी वनैले सूअर
कभी घड़ियाल- भेड़िये का रूप धर
हम सब शब्दों को अब सिर्फ
बोते- खाते- चबाते हैं।
निरीह छटपटाता है
हमारे मन के कोने में
छिपा बालक
एक
पुकारता है
बचाओ, निकालो-
सभ्यता के
इस दलदल से
निरर्थक शब्दों के भार से।
उल्लसित
खेलना चाहता है
वह सार्थक शब्दों से
उसने चुन रखे हैं
अपने लिए
शब्द-
प्यार- खुशी- उछाह- मित्रता- संवेदना।
क्या
आप अपने गठ्ठर से दे सकते हैं
ये शब्द
उधार ?
थोड़ी देर के लिए सही
बाकी जीवन के लिए सही।
-०-
कमलेश पांडेय

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