Friday, July 31, 2009

सपने

मैं थोड़े सपने बोता हूं
थोड़े सपने बांटता हूं

बिना
सपनों के
मुझे अपने
होने पर ही शक होता है

नहीं
जानता
बिन सपनों के
आदमी कैसे होता है ?

थोड़े- बहुत
बचे हैं पास अपने

उन्हें सजोने
उन्हें बढ़ाने

मैं बोता सपने
बांटता थोड़े सपने।

बंधु
गर
अब भी
बचे हों
तुम्हारे सपने

आओ
मिल बांटे हम-तुम-
थोड़ी उन बच्चों को दें
जिनके पीठ 
खोखले शब्द भरे
बस्तों के बोझ से दब दुहरे

उन बूढ़ों को थोड़ी दें
जो अपने में निपट अकेले

उन युवकों में बांटे
जिनकी आंखों 
स्थायी टंगे नौकरियों के इश्तहार

थोड़ी उन आंखों में बोयें
जिनमें
है खुशियों की सिर्फ निपट प्रतीक्षा

बांटो- बांटो- बांटो
सपने।
सपने ही तो जीने की पहचान हैं।
-०-
कमलेश पांडेय

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