चुप रहो
दिन अभी
प्यारे नहीं हुए
जिनसे थी उम्मीद
अब तक हमारे नहीं हुए।
किया था
हमने जिन पर जान से बढ़ भरोसा
मुंह मोड़ चले ऍसे, मानो
कभी अपने ही नहीं हुए।
चुप रहो
दिन अभी
रात से हैं स्याह
दिख रहे हैं
जो हमें रहवर
मुंह फेरते ही झट वे सय्याद हुए।
चुप बैठो
कि
दिन अभी बदलेगा
रात की कोख से
झांक सूरज मुस्करायेगा
यकीन
मानो
चुप रहने पर ही
सब कुछ बदलता है।
-०-
कमलेश पांडेय
बहुत सुन्दर रचना है बधाई।
ReplyDelete