बहुत चहक कर
मैंने बढ़ाये हैं
तुम्हारी ओर हाथ।
इस भीड़ में भी
अकेले हैं
कितने
हमारे कदम
नहीं मिलते
कभी एक साथ
एक जैसे पदचाप।
हर कदम की
अपनी अलग राह
अनजान मंजिलों
सुनसान डगर
मापते थके पांव चलने को मजबूर
हम-तुम
कब तक ?
बागीचों पर आज पहरा है
हवाएं भी बंगलों में बैठ इतरा रहीं।
कौन- कहां- किसका पहरा है
समझ पाना हुआ मुश्किल।
अपने दुःखों के बोझ उठाये
देखो
जा रहे
कितने डगमगाते पांव।
थोड़ी सांस बांटने
थोड़ी उजास बांटने
मैंने बढ़ाये हाथ
थामो थामो थामो
सब हाथ
यकीन मानो-
बदलना हो
जीवन
करो साथ
गहो हाथ।
-०-
कमलेश पांडेय
अच्छी रचना! बधाई.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना।बधाई।
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