Friday, September 4, 2009

कसी लगाम

मैं

कई बार

कुछ कहना चाहता हूं

पाता हूं

मुंह पर कसी है

लगाम

और अब वे

सपनों पर भी हक जमाने की कर रहे हैं

आपस में बात।

हम

धृतराष्ट्र बनने को अभिशप्त

कारण

दौड़ रहा है

हमारी धमनियों में उनका नमक


टंगी है हमारी आंखों

भयावह कल की तस्वीरें।

सच

हममें से हरेक

जानता- पहचानता है

पर

धर्मराज युधिष्ठिर तक ने सिखायी है

हमें भाषा- नरो वा कुंजरो की।

बड़ा ही अच्छा लगता है

अपनी छोटी जरूरतों को

पूरा होते देखना।

भूल जाता है आदमी

सपनों के टूटने की पीड़ा

बस उसे साधनी पड़ती है

धृतराष्ट्र होने की कला।

-०-

कमलेश पांडेय

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