Wednesday, November 30, 2011

औरत का होना सहज नहीं होता


सहज नहीं होता
औरत होना
गर्भ में थामे रखनी पड़ती है
पूरी पृथ्वी
हम हैं
जीवन है
दुःख-सुख
खुशियां- आंसू हैं
जीवन के लिए
औरत की कोख
चाहिए होती है
दुःख भुलाने को
प्रेमिका की आंखों का
एक कोना
आसान नहीं होता
औरत का होना
पूरी कायनात समेटे रहती है
अपने आंचल में वह
घर-परिवार
हम-तुम

सभी सिमटे
उसकी बांहों में
जहां बरसता है
सिर्फ स्नेह
आसान नहीं होता
किसी के प्रेम में मिले
आनंद को भुला देना
औरत होना
मानो धरती होना है।
- कमलेश पांडेय

Saturday, November 19, 2011

ओ एक कतरा सुख!


ओ एक कतरा सुख!
तुम्हारे लिए
आजन्म प्रतीक्षा की है
कई-कई
बार
झांके हैं
मैंने
तुम्हारी आंखों के कोने।
तलाशें है
शब्दों के भी मर्म।
अपरिचित होठों पर फूटती हंसी
खुशी से छलकती आंखों में हैं दिखीं
कई बार तुम्हारी झलकियां।
ओ एक कतरा सुख!
कई बार तुम
लडख़ड़ाते बच्चे की भांति
बगल से गुजर गये
थलमलाते
बढ़ाई थीं उंगलियां मैंने
तुम्हें थाम सीने में सजोने को
पर
तुमने तो
मुंह ही मोड़ लिया
तुम्हें भी तो चाहिए
संगी कोई ऐसा
जो
तुम सा ही होता।
काश!
भूल पाता मैं
बोझिल होते जा रहे शब्द
भोगी/ ओढ़ी तमाम अनुभूतियां
और
चल पड़ता
तलमल-थलमल
तुम्हारी उंगली थाम।
- कमलेश पांडेय
18-11-11, (बक्सर स्टेशन, शाम 7.30 बजे)

Thursday, September 22, 2011

कितने कारगिल और (विस्तार से)

कितने कारगिल और
कमलेश पांडेय
मैं एक अफसानानिगार हूं। और कहानी कहना ही मेरा धर्म है। कहानियां तमाम तरह की होती हैं, कुछ सच्ची, कुछ झूठी, जैसे कि लोगों के चेहरे होते हैं। चेहरे और कहानी गढ़ने में कई लोग उस्ताद होते हैं पर जब सच्ची कहानी और सच का चेहरा आपके हाथों हो तो झूठ की चाशनी की क्या जरूरत...
सीधे-साफ शब्दों में पेश-ए-खिदमत है, एक ऐसी ही कहानी जो हमारी इस मुकद्दस जमीं पर वाकई घटी है। फर्क सिर्फ इतन ही है कि इसे कहानी बनाने के लिए लोगों के नाम और जगह मैं नहीं बता रहा हूं। तो हुजूर सुनें.......


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जवानो, अंटेशन... तुम सब सावधानी के साथ आगे बढ़ोगे। तुम्हें ध्यान रखना है कि तुम सब नीचे खुले में हो तथा दुश्मन ठीक तुम्हारे ऊपर। तुम्हें बीहड़ लड़ाई लड़नी है। ऊंचाई पर होने के कारण दुस्मन फायदे में है। ऐेसे में भरसक आड़ लेकर तुम सबको गुरिल्ला वार करना है। जोश में आ, खुले में आने पर अपना नुकसान होगा। ऐसे में होशियारी से आगे बढ़ो तथा दुश्मन के सिर पर पहुंचकर अटैक करो। वे बंकर में छिपे हैं, अतः तुम सब लेटकर और घेराबंदी कर आगे बढ़ो। समझे.. कोई शक.. मेजर ने कहा।
सैनिक जानते थे कि इस प्रकार खुले में रेंगते हुए जाकर वार करना सीधे मौत के मुंह में जाना है, पर सेना में जवाब देने की गुंजाइश नहीं होती है, ऐसे में एड़ियां खटका कर कहा ... नो सर।
कश्मीर के इस खूबसूरत अंचल में सियासती नफरत की रेंगती पिछली आधी सदी के परिणाम स्वरूप झाड़ियों की ओट लेकर भारतीय सेना की टुकड़ी धीरे-धीरे रेंगते हुए आगे बढ़ रही थी। ऐसी खूबसूरत फिजा, जिसमें सिर्फ माशूका का हाथ थामे खो जाने की ही ख्वाहिश हो, हथियारों को लादे घुटनों और केहुनी के बल रेंगते हुए टुकड़ी को लगातार ऊपर चढ़ना पड़ रहा था।
मई के पहले सप्ताह में आदेश पाकर यह टुकड़ी आनन-फानन कारगिल पहुंची थी। सैनिक अधिकारियों को अनुमान था कि इस बीहड़ क्षेत्र की सैकड़ों चोटियों पर पाकिस्तानी घुसपैठिये बंकरों में घुसकर इस घात में बैठे हैं कि भारतीय सेना की स्थिति कमजोर होते ही श्रीनगर से लेह जाने वाले हाईवे पर कब्जा कर पूरे पहाड़ी क्षेत्र पर अधिकार जमा लेंगे। अपने इस इरादे को पूरा करने के लिए पाकिस्तानी घुसपैठियों ने बड़े धीरज के साथ जाड़ा भर बंकरों में छिपे रहकर इंतजार किया था। हालांकि इसकी भनक पाकर ब्रिगेडियर सुरेन्द्र सिंह ने लगातार रक्षा विभाग के अधिकारियों को सूचित भी किया था पर सरकारी अमला तो दिल्ली से लाहौर को रवाना होने वाली बस की रवानगी की खुशी की खुमार में डूबा हुआ था। बहरहाल कुछ चरवाहों ने जब भारतीय सैन्य अधिकारियों को पाक घुसपैठियों की गतिविधियों से अवगत कराया तब कहीं सैन्य अधिकारियों, खासकर सरकार की गफलत टूटी।
कारगिल पर घुसपैठियों के कब्जे की खबर जब पूरी तरह फैल गयी तब रक्षा मंत्रालय ने थल सेना और वायुसेना की बटालियनों को तुरन्त श्रीनगर और कारगिल पहुंचने का आदेश दिया, जिसके बाद इस क्षेत्र में सेना की बटालियन और पत्रकार धड़ाधड़ पहुंचने लगे।
26-MAY-1999
आज आपरेशन विजय का नाम घोषित करते हुए मेजर ने हुक्म फरमाया- सैनिको. दुश्मनों पर विजय हासिल करना ही हमारा टारगेट है।
बस तब से भारतीय सैनिक छिपते-छुपाते दिनों-दिन आगे बढ़ रहे थे पर ऊंचाई पर बैठे दुश्मनों से वे कहां तक बच पाते। घुसपैठियों के वेश में पाकिस्तानी सैनिक उन पर गोलियां तथा मोर्टार व लांचरों से हमला कर रहे थे। बाध्य रेंगती भारतीय सैनिक टुकड़ियों को रुक-रुककर गोलीबारी का जवाब भी देना पड़ रहा था। भारतीय सैनिकों को अ तक पता चल चुका था कि घुसपैठिये सीमा नियंत्रण रेखा के इस पार कारगिल, बटालिक, द्रास और मुश्कोह घाटी के लगभग 70-80 किलोमीटर के दायरे में फैल गये हैं और भारतीय थलसेना तथा वायुसेना इन पहाड़ी क्षेत्रों में हमला कर इस क्षेत्र को पुनः अपने कब्जे में लेने की दुष्कर लड़ाई में जुटी थी। खासकर तब, जब पाकिस्तानी घुसपैठिये बंकरों में छिपे हुए हैं और शून्य से भी नीचे के तापमान पर भारतीय सैनिकों को रेंगते हुए आगे बढ़ना पड़ रहा है।
24 जून 1999
इसी प्रकार रेंगते-सरकते हुए अमरनाथ की टुकड़ी ने एक पहाड़ी चोटी को अपने कब्जे में कर लिया। यह पहाड़ी चोटी तोलोलिंग के पास ही टाइगर हिल, नॉल और प्वांइट 5140 नामक पहाड़ियों की उन चोटियों के पास था, जिन पर पाकिस्तानी घुसपैठिये जमे रहकर जोरदार लड़ाई लड़ रहे थे।
28 जून 1999
मेजर ने दो अन्य टुकड़ियों के साथ मिलकर अमरनाथ की इस टुकड़ी को टास्क दिया- 'रात में ही हमला कर टाइगर हिल पर कब्जा कायम करो।'
अमरनाथ अपने साथी सैनिकों के साथ तेज बर्फीली हवा और शून्य से भी नीचे के तापमान में घण्टों रेंगते हुए आगे बढ़ रहा था। मेजर ने आदेश दिया- 'आगे बढ़ो और दुश्मन पर अचानक हमला करो।' रात आधी बीत चुकी थी। दुश्मन के सिर पर पहुंच मेजर ने अमरनाथ और राघवन को आर्डर दिया- 'दुश्मन के बंकर के पास सावधाऩी से पोजीशन समझ कर आओ।'
अमरनाथ और राघवन रात के अंधेरे में घुल-मिल दबे पांव टोह लेकर वापस लौटे और मेजर को अवगत कराया। मेजर ने तुरंत आदेश दिया- 'दुश्मन को तीन ओर से घेरकर हमला करो।'
हमला शुरू होते ही दोनों ओर से गोलियां, ग्रेनेड, स्पेलेंडर, स्नाइपर बरसने लगे। अमरनाथ और राघवन पूरे जोशोखरोश में सबसे आगे थे। जोश में अमरनाथ ने छह और राघवन ने चार घुसपैठियों को मार गिराया। तभी अचानक कही से आई गोली ने राघवन का सीना छलनी कर दिया। राघवन को गिरते देख अमरनाथ किसी जुनूनी की भांति चीखते हुए घुसपैठियों पर टूट पड़ा। किसी उन्मादी की भांति झूमते हुए अमरनाथ आगे बढ़ता गया और दो मिनट में उसने घुसपैठियों के दो बंकरों को उड़ा दिया। बंकर उड़ते ही जोश में धड़धड़ाते हुए भारतीय टुकड़ी आगे बढ़ आई। हठात् किसी कोने से किसी घुसपैठिये की चलाई गोली अमरनाथ के सिर में लगी और वह तत्क्षण निष्प्राण वहीं गिर पड़ा। उसकी खुली आंखें नहीं देख पाईं कि उसके साथी सैनिकों ने कब बचे घुसपैठियों का खात्मा कर चोटी पर कब्जा जमा लिया।
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हुजूर ! सरकारी प्रचार तंत्र के बयान को आधार माना जाये तो इस 'युद्ध जैसी परिस्थिति' में अमरनाथ जैसे सैकड़ों जवानों ने अपनी जान गंवा विभिन्न पहाड़ी चोटियों पर पुनः कब्जा हासिल किया। पर इन सैनिकों की पीड़ा से अनजान सरकारी अमला इस कूटनीतिक गफलत में ही फंसा था कि इसे युद्ध घोषित किया जाये अथवा घुसपैठ। हरसंभव कूटनीतिक प्रयास जारी थे, यहां तक कि छिपे तौर पर दूत तक भेजा गया पर पाकिस्तानी हुक्मरानों की ओर से कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं मिल पा रही थी।
हुजूर ! हथियारों की तिजारत मं बड़ा ही मुनाफा है। लड़ाइयां पहले सीधे सीधे दो राजाओं, फिर दो देशों के बीच होती थीं पर अब उग्रवाद की आड़ में यह धंधा फल-फूल रहा था। कश्मीर की वादियां भी भला कैसे अछूती रहतीं।
खैर, जीवन और फूल हर परिस्थितियों में खिलते और मुर्झाते हैं। भले ही सियासी जंग मैदान में लड़ी जाये अथवा वाक्युद्ध के रूप में राष्ट्रसंघ के नकली अखाड़े में। अपनी जान जाते देख घुसपैठियों ने अपने फौजी शासकों और राजनीतिज्ञों पर दबाव डाला तो बाध्य होकर पाकिस्तानी प्रधानमंत्री चीन और अमेरिका का समर्थन हासिल करने गये। अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों के मद्देनजर मियां नवाज शरीफ को समर्थन नहीं मिला, विपरीत अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने दबाव डाला कि पाक घुसपैठियों की वापसी सुनिश्चित की जाये।
4 जुलाई 1999
नवाज शरीफ ने इस बात की लिखित सहमति बिल क्लिंटन को जताई और पाकिस्तान लौटे।
16 जुलाई 1999
पाकिस्तान और भारतीय सैन्य प्रमुखों की बैठक अटारी में हुई औऱ पाक घुसपैठियों के वापसी की समय सीमा निर्धारित की गयी।
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हुजूर ! इस अघोषित अनिर्णीत युद्ध में आहत भारतीय सैनिकों ने जब सरकार के इस राजनीतिक निर्णय को सुना तब उनका खूल खौल उठा। अपनी गफलत से अपनी ही जमीन को मुक्त कराने के लिए इतने सैनिकों का खून बहाना पड़ा तब थोड़ा और खून बहाकर आर-पार का ही फैसला हो जाता। जब अमेरिकी हस्तक्षेप की जरूरत ही थी, तो बेकार हमारा खून बहाया गया। मन मसोस भारतीय सैनिक आदेशों का पालन करते रहें।
26 जुलाई 1999
सेना की पंद्रहवीं कोर के लेफ्टिनेंट जनरल कृष्णपाल ने जब समूे कारगिल क्षेत्र को पाकिस्तानी घुसपैठियों से मुक्त घोषित किया तब कहीं सरकार ने चैन की सांस ली।
इस प्रकार अमरनाथ के जीवनावसान के साथ एक युद्ध का पटाक्षेप हुआ पर क्या जीवन के दर्द का चंद शब्दों में बखान किया जा सकता है...?
हुजूर ! हो सकता हो कि आपको अमरनाथ कम ही याद हो, क्योंकि आपने उसके साथ चंदेक घण्टे ही गुल्ली डंडा या फुटबाल के मैदान में गुजारे होंगे अथवा दूरदर्शन पर उसकी बहादुरी के किस्से अथवा फोटो देखकर अहसानमंद हैं कि अमरनाथ नामक सैनिक ने अपनी शहादत देकर भी सीमा को आपके लिए महफूज रखा। खैर, संभवतः थोड़ी देर के लिए सही, आप भी दुःखी जरूर हुए होंगे।
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दुःखी तो एकबारगी पूरा कस्बा भी हुआ थाष दर्द से अमरनाथ की पत्नी गौरी पछाड़ खा बेहोश हो जा रही थी। छाती कूट-कूट कर वह रो रही थी- 'अरे! रह जाते हम भूखे। कौन कुवक्त में उनसे कहा था नौकरी पकड़िये। क्या बाप-बड़े भाई की कमाई पर जिंदगी नहीं कटती है.. सुन लेते जिंदगी भर ताना। अब तो जिंदगी अंधार हो गयी, माई!अब मोर का होई, रे माई!'
सुनने वालों का कलेजा कभी टीसता, तो कभी वे कान बंद कर लेते। आखिर कौन कितनी देर तक किसी दूसरे के दुःख में साथ दे।
अमरनाथ का शव जब उस बबाली ताबूत (किस्सा कभी बाद में) में ऱखकर कस्बे में लाया गया तो लगा मेले का माहौल उमड़ आया। कलेक्टर, अफसरों की बात छोड़िये, पता नहीं कहां-कहां के मंत्र दरवाजे पर जुटने लगे। तरह-तरह के झंडे लेकर कहां से सैकड़ों लोग वहां पहुंच गये। सैनिक सलामी के बाद राइफल उलटी कर मातमी धुन बजाने के बाद जब अमरनाथ की चिता को आग लगायी गयी तो गौरी के बचे अरमान भी जलने लगे और चिता की लपटों में उसे जिंदगी का अंधकार दिख रहा था।
अमरनाथ का ही तो आसरा था उसे, अन्यथा बाबूजी, सास तथा जेठ-जेठानी का व्यवहार तो कहने लायक नहीं। जेठानी और सास की चक्की में पिसती गौरी को जीवनयापन की इस लड़ाई से निाल पाने वाले निर्णायक युद्ध में पराजित अमरनाथ ने गौरी का साथ हमेशा के लिए छोड़ दिया, जबकि कुछ दिनों पहले ही सेना में बहाल होने के बाद अमरनाथ ने सोचा था कि फैमिली क्वार्टर मिल जाने के बाद गौरी को साथ बुला लेगा पर अब तो गौरी की जिंदगी ही बेलगाम हो गयी। जलती चिता देखकर धार-धार बह रहे आंसुओं और विचारों पर रोक तब लगी, जब उसने केंद्रीय मंत्री को अपनी ओर देखते और घोषणा करते पाया-

कितने कारगिल और (संक्षिप्त कहानी )

कितने कारगिल और
कमलेश पांडेय

अमरनाथ कारगिल की चोटियों पर पाकिस्तानी घुसपैठियों से लड़ाई के दौरान शहीद हो जाता है। राज्य सरकार तथा केंद्र सरकार की ओर से लाखों रुपये मुआवजा की घोषणा उन सरकारों के बीच होड़ स्वरूप की जाती है। अमरनाथ का शव ताबूत में भर कर सरकार गांव में भिजवाती है तथा सैनिक सलामी के बीच उसका अंतिम संस्कार किया जाता है। दूर-दूर से लोग अंतिम यात्रा में भाग लेने जुटे हैं। उसकी पत्नी गौरी, मां, पिता, भाई, भाभी सब फूट-फूट कर रोते हैं। मंत्री सांत्वना देते हुए मुआवजा राशि की घोषणा करते हैं।
मुआवजा राशि को लेकर शहीद अमरनाथ के भाई-भाभी, मां-पिता रात को आपस में बहस करते हैं, जिसे गौरी सुन लेती है। उस मुआवजा राशि को हासिल करने के लिए उनमें आपस में ही काफी बहस होती है। पूरी बहस को सुनकर गौरी अवाक रह जाती है।
दूसरे दिन गौरी का भाई सुभाष आता है, जिसे गौरी सब बता देती है। वह उसे दिलासा देता है कि सावधान रहो तथा किसी भी हालत में दबना नहीं। और पैसे पर किसी का नाम नहीं चढ़ने देना।
यह सारी बातें गौरी की जेठानी सुन लेती है तथा वह अपने पति अमरनाथ को बताती है। अमरनाथ (गौरी के जेठ) उसे सावधानी बरतने तथा गौरी से नर्म व्यवहार बरतने को कहते हैं। सुभाष को बाहर निकलते देख उससे बड़े मीठे स्वर में अमरनाथ बात करते हैं तथा इशारे में कहते हैं कि सरकार अगर पैसा उनके नाम दे तो वे उसे ट्रैक्टर दिलाने में आर्थिक मदद करेंगे। लेकिन सुभाष बड़ी चालाकी से जवाब देता है कि वह अपनी बहन का पैसा नहीं लेगा।
इस बीच पेंशन के कागज आते हैं, जिनमें उत्तराधिकारी के रूप में गौरी का नाम लिखा था। अमरनाथ दबाव डालते हैं कि बैंक में खाता खोलकर पैसे भले ही गौरी जमा करवा ले लेकिन पैसों को निकालने का अधिकार वह अमरनाथ को सौंप दे। वे तर्क देते हैं कि औरत होकर तुम कहां बाहर-भीतर दौड़ोगी। गौरी अड़ गयी कि बैंक में उत्तराधिकारी के रूप में उसी के नाम का खाता खुलेगा।
थक-हार कर सब राजी हो जाते हैं। बैंक में खाता खुलवाने के बाद विजयी के तौर पर चहकते हुए गौरी घर आती है तथा मां को बताती है। मां ताना मारती है।
खैर, पैसे खाते में जमा होने लग गये। गौरी उन पैसों को नहीं निकालती थी। जब काफी पैसे जमा हो गये तब एक दिन अमरनाथ अपनी पत्नी के जरिये गौरी को बुलाते हैं तथा घर पक्का बनवाने के नाम पर पैसे मांगते हैं। गौरी पैसे देने से मना करती है। इस बात पर उनके बीच आपसे में झिक-झिक होती है। आपस में घरवाले सलाह करते हैं तथा वकील के पास जाते हैं।
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वकील सत्यप्रकाश सलाह देते हैं कि एक मुकदमा शुरू कर दिया जाये कि गौरी शहीद अमरनाथ के मरने से चार साल पहले ही अपनी इच्छा से घर छोड़कर चली गयी थी, इस कारण अमरनाथ के पेंशन पर उसका कोई हक नहीं है। लोक-लिहाज तथा पंचायत के अनुरोध के कारण अब तक हमने मुकदमा शुरू नहीं किया था, लेकिन वास्तविक उत्तराधिकारिणी नहीं होने के कारण कानूनन यह उचित नहीं है।
कोर्ट में मामला शुरू हो गया। मामला देखने के नाम पर सुभाष अपनी बहन से पैसे मांगता है।
कोर्ट में बहस शुरू होती है, जहां वकील एक ओर गौरी को अमरनाथ की पत्नी साबित करने की कोशिश करता है, वहीं विपक्षी वकील अपनी दलीलों से यह प्रमाणित करना चाहता है कि गौरी चार साल पहले उनमें आपसी रजामंदी से हुए तलाक के बाद घर छोड़कर चली गयी थी।
इसी बहसबाजी के बीच कोर्ट यह आदेश देती है कि पेंशन के उत्तराधिकारी के रूप में गौरी का नाम दर्ज रहेगा लेकिन विपक्षी वकील के दबाव के कारण जज आदेश देते हैं कि जब तक यह साबित नहीं हो जाता है कि गौरी शहीद की वास्तविक उत्तराधिकारी थी, तब तक बैंक खातों से पैसों की निकासी पर रोक लगा दी जाये। और वे मुकदमे की सुनवाई के लिए अगली तारिख दे देते हैं।
इस प्रकार साल-दर-साल काफी बहसबाजी होती है। ऊलजलूल के सवाल-जवाब आपस में वकील करते हैं। इस बीच गौरी अपना ससुराल छोड़कर अपने मायके में रहने चली जाती है। अंत में उसे मनाने के लिए अमरनाथ उसके मायके जाते हैं तथा समझाने की कोशिश करते हैं, लेकिन गौरी नहीं मानती है तथा ससुराल आने से मना कर देती है।
रामनाथ अपने वकील से मिलते हैं तथा कोई रास्ता निकालने को कहते हैं। वकील कहते हैं कि अगर किसी कारण से गौरी की मौत हो जाये, तब शहीद अमरनाथ के सबसे नजदीकी रिश्तेदार होने के नाते उसके पेंशन तथा मुआवजे की राशि आप लोगों को मिल सकती है।
रामनाथ को मानो रास्ता सूझ गया। सुभाष के घर रात में डकैत धावा मारते हैं। लूटपाट से कहीं अधिक वे घरवालों की तलाश कर रहे थे। किसी प्रकार जान बचाकर गौरी, सुभाष वहां से भाग निकलते हैं। अगले दिन मुकदमे की तारीख थी। सुभाष की मोटरसाइकिल पर बैठकर गौरी गंवई रास्ते से होते हुए कोर्ट की ओर जा रहे हैं। इस बीच कई मोटरसाइकिल सवार उन दोनों को घेर लेते हैं। मार-पीट कर वे सुभाष तथा गौरी को गोली मार देते हैं।
रामनाथ वहां आते हैं तथा सुभाष और गौरी के थैले की जांच पड़ताल करते हैं। रोटियां वहीं फेंक देते हैं तथा मुकदमे के कागजात और चेक लेकर चले जाते हैं। रोटियों पर कौवे टूट पड़ते हैं।

Wednesday, August 24, 2011

किस रावण की भुजा उखाड़ूं / किस लंका में आग लगाऊं

देश में आजकल भ्रष्टाचार के खिलाफ मानो आंधी सी आ गयी है। पूरा देश गांधी टोपी पहन, मोमबत्ती जुलूस निकालकर देश को एक नये आलोक से जगमगा देना चाहता है। देश के विभिन्न भागों में रैलियां निकाली जा रही हैं। हमारे महानगर में भी युवकों ने भ्रष्टाचार के खिलाफ रैलियां निकालीं, नारे लगाये- 'अण्णा तुम अनशन करो, हम तुम्हारे साथ हैं।Ó दरअसल देश के वे युवा, जिन्होंने सन् छिहत्तर की संपूर्ण क्रांति तथा उसका हश्र नहीं देखा, इन मशाल जुलूसों में आगे-आगे शामिल हुए। उनकी आंखों में फिलवक्त एक स्वप्न टंगा है, जन लोकपाल लागू होते ही उनकी सारी दुश्वारियां समाप्त हो जायेंगी। मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री और न्यायाधीश तक को इस जन लोकपाल के अधीन ला देने के कारण देश एक बार फिर सोने की चिडिय़ा बन जायेगा। कारण कि देश के तमाम भ्रष्टाचारियों पर जन लोकपाल के सदस्य निगरानी रखेंगे।
बहरहाल, लोकतंत्र में विभिन्न मुद्दों पर आंदोलन छेड़े जाने चाहिए, क्योंकि यह वक्त की जरूरत है। वाकई आज देश में भ्रष्टाचार अपने चरम स्वरूप में पसर चुका है। हर रिश्ते-नाते, समाज, शिक्षा, चिकित्सा, परिवहन सेवा, जिस किसी मसले को आप उठा लें, भ्रष्टाचारियों की जमात आपके इर्द गिर्द बिखरी मिलेगी। पानी मिला दूध भी सही मात्रा में घर में नहीं बंट पाने के कारण हमारे बंटते परिवारों से लेकर बाजार में रंग मिली सब्जियों को बेचने वालों, नकली दवाओं के साथ जाली नोटों को चलाने वालों को आप सबों ने लगता है कहीं नहीं देखा है। दरअसल, हम इसे भ्रष्टाचार नहीं मानते हैं। हमारे कुछ विद्वत्जन यह भ्रम फैलाना चाहते हैं कि जन लोकपाल के हाथों जादुई छड़ी होगी, कारण भ्रष्टाचार की गंगा ऊपर से नीचे बहती है। ऐसी स्थिति में प्रधानमंत्री, न्यायाधीश तथा अफसरशाही के भ्रष्टाचार पर रोक लग जाने से वाकई देश में..राम-राज...जायेगा। खैर, इस आंदोलन में एक बात बढिय़ा है कि आंदोलनकारी 'गांधीगीरी.में विश्वास रख रहे हैं। सिर्फ गांधी टोपियां इन दिनों ब्लैक में मिलने लगी हैं (पहले आठ, अब बीस रुपये) और पूर्व पुलिस अधिकारी किरण बेदी की जेब कथित ईमानदार आंदोलनकारी काटने पहुंच जा रहे हैं। यह तो बढिय़ा बात है कि मुन्ना भाई ने पहले ही देश के नौजवानों को गांधीगीरी की सीख दे दे थी। अन्यथा कहीं हमारे देश का हाल भी लीबिया में चल रहे आंदोलन जैसा हो जाता।
अब अण्णा जी का आंदोलन पूरे शबाब पर है तथा लगता है कि जन लोकपाल के मसले पर कुछ न कुछ ठोस नतीजा निकल जायेगा। देश की जनता के हाथों में वह कमान होगा, जिससे कि उसकी सारी समस्याओं का समाधान मिल सकेगा। सब्जियां सस्ती हो जायेंगी। बाप अपने बेटों के लिए दहेज नहीं लेंगे। बहुएं दहेज के लिए जलाई नहीं जायेंगी। बच्चों के स्कूलों में ऐडमिशन के लिए प्रिंसिपल डोनेशन मांगना छोड़ देंगे। सरकारी अस्पतालों में दवाएं मिलने लगेंगी। नर्सिंगहोम मरीजों को लूटना बंद कर देंगे। टीटीई ट्रेनों में बिना रिश्वत लिए आपको आरक्षण दे देंगे। ट्रेनें पलटना बंद कर देंगी। पुलिस बिना मुट्ठी गर्म हुए आपकी शिकायत लिख लेगी। न्यायालयों में न्यायाधीशों के सामने बैठे पेशकार उनके सामने ली जाने वाली पेशी (नकदी) की उगाही बंद कर देंगे। भ्रष्टाचार आज समाज में एकदम निचले तबके से लेकर ऊपर तक व्याप्त है। कई बार लगने लगता है- 'किस रावण की भुजा उखाड़ूं/ किस लंका में आग लगाऊं / गली गली, हर घर-घर रावण/ इतने राम कहां से लाऊं।Ó
अब आप देखिये न, किसी भ्रष्ट समाज में किसी बेचारे पुरुष तक को कितना भुगतना पड़ता है। पति बेचारा अगर औरत पर हाथ उठाता है तो वह जालिम, जो पिट जाता है तो बुजदिल। पत्नी को दफ्तर के किस्से नहीं बतलाये तो घुन्ना और बोले तो बेगैरत। घर से बाहर रहे तो आवारा, घर में पड़ा रहे तो नकारा। बच्चों को डांटे-पीटे तो जालिम और नहीं डांटे-पीटे तो लापरवाह। नौकरी नहीं करने दे तो- शक्की और करने दे तो औरत की कमाई खाने वाला।
क्या आप इस मसले को दांपत्य जीवन में छिपा भ्रष्टाचार नहीं मानते हैं। यह तो हम नासमझ थे और अब सन् छिहत्तर के बाद किसी ऐसे आंदोलन को अण्णा की कृपा से देख पा रहे हैं।
जोश मलीहाबादी के स्वर में कहें- 'अब तक खबर न थी मुझे उजड़े हुए घर की/ तुम आये तो घर बेसरो-सामां नजर आया।Ó
देश एक बार फिर उम्मीदों से भर उठा है। कृपया इसका गलत अर्थ नहीं लगायेंगे। हमारी किस्मत ही बहादुर शाह जफर की भांति है- 'उम्र ए दराज मांगकर लाये थे चार दिन / दो आरजू में कट गये, दो इन्तजार में।Ó
अब ऐसी स्थिति में जब सभी हताश बैठे थे तभी साहिर लुधियानवी के शब्दों में मानो समय ने स्वयं हमें दिलासा दिया है - 'तुम अपना रंजोगम अपनी परेशानी मुझे दे दो/ मुझे अपनी कसम, यह दु:ख, यह हैरानी मुझे दे दो/ मैं देखूं तो सही, यह दुनिया तुझे कैसे सताती है / कोई दिन के लिये तुम अपनी निगहबानी मुझे दे दो।Ó अब देखा, जाये, उम्मीद पर ही तो दुनिया टिकी है।

Saturday, August 20, 2011

क्या अन्ना हजारे व देश के युवा ध्यान देंगे......


अन्ना हजारे के जन लोकपाल के मुद्दे पर किये जा रहे अनशन के साथ देश का युवा वर्ग मानो इस कदर उत्साहित होकर एक वायवीय समर में कूद पड़ा है,जैसे देश में जन लोकपाल कानून के लागू हो जाने से समग्र क्रांति आ जायेगी। देश के चंद भ्रष्ट मंत्रियों तथा अधिकतम प्रधानमंत्री तथा उनकी मांग के अनुसार चंद भ्रष्ट न्यायाधीशों तक को जन लोकपाल के जांच के दायरे
में लाकर देश से तमाम समस्याओं को जादू की छड़ी से समाप्त किया जा सकता है। अन्ना हजारे देश की 110 करोड़ की आबादी में से आज एक ऐसा व्यक्तित्व उभर कर सामने आये हैं, जिनके पीछे एक बार देश का युवा चलने की सोच रहा है। हालांकि स्वयं अन्ना की दृष्टि क्या इस भ्रष्टाचार रूपी दानव के विराट स्वरूप को पहचान पाने में सक्षम है। कम से कम मुझे तो ऐसा नहीं लगता है।
आज बेहिसाब बढ़ती आबादी में जब एक बालक जन्म लेता है, तब सरकारी अस्पताल से लेकर नर्सिंगहोम तक में किस प्रकार उस दंपति का आर्थिक शोषण होता है,संभवतः इस शोषण के स्वरूप से अन्ना बेखबर हैं। किसी बालक ने जन्म लिया तब तो गनीमत है किंतु लड़की का जन्म लेना तो मानो गोबर पट्टी तथा देश के पुरुष प्रभुत्व वाले राज्यों में एक पाप सा ही है। दहेज के दावानल में झुलसने वाली विवाहिताओं की चीख-पुकार क्या आजतक अन्ना के कानों में नहीं पड़ी है। पुरुषों के वर्चस्व में पिसती महिला तथा उनके दैहिक, मानसिक, आर्थिक शोषण की बात तो काफी दूर की है,आज कन्या भ्रूण हत्या के कारण देश के विभिन्न राज्यों में लिंगानुपात काफी गंभीर चिंता का विषय बन चुका है। बालक-बालिका के थोड़ा बड़ा होते ही उनकी शिक्षा-दीक्षा के लिए अभिभावकों को कितनी तकलीफें उठानी पड़ रही हैं। देश में तमाम कानून बने हैं। आज शिक्षा का अधिकार कानून भी है,बावजूद बालश्रम पर रोक लगा पाने में कानून नाकाम रहा है।
मैं सरकारों की बात नहीं कर रहा हूं, कारण कि अन्ना तथा उनके सहयोगियों की नजरों में सरकारों में तो चेहरे पर कालिख पुते लोग शामिल हैं, जबकि दूध से धुले चेहरे वाले सफेद झक वस्त्रों वाले ही आज क्रांति की मशाल थामे मैदान में उतर पड़े हैं।
खैर, मुद्दे पर लौटता हूं, बच्चों और बच्चियों की शिक्षा सरकारी स्कूलों में उचित तरीके से नहीं हो पाने की आशंका में अभिभावक अपने बच्चों को निजी स्कूल तथा कालेजों में पढ़ाने को लालायित होते हैं, अथवा यूं कहें कि आज की सामाजिक व्यवस्था ही ऐसी हो गयी है कि कान्वेंट स्कूल में बिना अंग्रेजी पढ़े,तो कोई शिक्षित हो ही नहीं सकता। अब ऐसी स्थिति
में निजी स्कूल वाले डोनेशन के नाम पर आज लाखों रुपये तक वसूल रहे हैं,क्या अन्ना तक ऐसी खबरें आज तक कभी नहीं पहुंची हैं। वाकई अन्ना बहुत महान हैं। उन्हें ऐसी छोटी-छोटी चिंताएं नहीं सताती हैं। वे तो भ्रष्टाचार के चरम शीर्ष पर हमला कर उसे जड़ से मिटा कर ही छोड़ेंगे। आज सूचना का अधिकार पाने में कामयाब होने से उत्साहित चंद लोग उनका साथ दे रहे हैं। क्या उन्हें यह सूचना नहीं कि देश में सिर्फ राजनीतिक स्तर पर ही भ्रष्टाचार व्याप्त नहीं है। उन्हें अगर यह सूचना
नहीं तो मैं बताना चाहूंगा कि चिकित्सा, शिक्षा के क्षेत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार के हल्के से स्वरूप से ही आप यहां परिचित हुए हैं। उनके विराट स्वरूप का दर्शन करा पाना यहां मुमकिन नहीं है, कारण कि समाज की परतें जब आप उधेड़ने लगेंगे तो हमाम में सभी नंगे दिखेंगे। जिसकी पूंछ आप उठायेंगे, वह मादा ही निकलेगा।
हो सकता है कि किराये में बंगला लेकर वर्षों उसमें दखल बनाये रखने के बाद कानूनी तौर पर मकान मालिक को सालों उलझाकर उस बंगले का मालिक बनने वाले लोग भी आपके साथ क्रांति का झंडा उठा लें। क्योंकि दूसरों पर उंगलियां उठाना काफी आसान होता है। हां, हम सब भ्रष्ट हैं, क्योंकि भ्रष्टाचार हमारे रग-रग में समाया हुआ है। आप नैतिकता का झंडा बुलंद कर रहें, बिना खाये-पीये। लेकिन जब आप भोजन ग्रहण करते थे, तब क्या गारंटी थी कि आपको शुद्ध खाद्यान्न ही मिल रहा था। मिलावट, जमाखोरी, महंगाई का नाम तो आपने सुना ही नहीं, न ही कभी उसके खिलाफ आवाज उठाई है।
आवाज तो पिछले दिनों बाबा रामदेव ने भी विदेश में जमा पैसों को लेकर काफी उठाई थी, जबकि स्वयं वे विदेशों में द्वीप के मालिक बनने में जरा भी पहरेज नहीं करते हैं। मामूली से योग प्रशिक्षण से शुरू कर लाखों करोड़ रुपये की संपत्ति खड़ा करने में उन्हें कोई गुरेज नहीं। उनके गुरुदेव जमीन दान करने के बाद कहां लापता हो गये, इस बारे में भी उन्हें खबर नहीं।
दरअसल हमारे देशवासियों की यह खासियत है कि वे विश्लेषण की जहमत नहीं उठाना चाहते हैं। सात बार लोकसभा में लोकपाल का मुद्दा रखे जाने और पारित नहीं कराये जाने के कारण अन्ना को बेहद नाराजगी है। अपने अनशन से वे सरकार को झुका देना चाहते हैं। भ्रष्टाचार वाकई बेहद बुरी, दानवी समस्या है। इसका खात्मा जरूरी है।

लेकिन किस प्रकार..। आज शिक्षक क्लासों में किस प्रकार पढ़ाते है और ट्यूशन के दौरान किस प्रकार,डॉक्टर सरकारी अस्पतालों में किस प्रकार और निजी डिस्पेंसरियों में किस प्रकार देखते हैं,क्या बताने की जरूरत है। डॉक्टर आज मानव अंगों तक को निकाल ले रहे हैं। दवा कंपनियां बेतहाशा लूट रही हैं। नियम-कानून की आंखों में धूल झोंकने वाले आज देशभर में आपका साथ दे रहे हैं। देश के कानून की किस प्रकार अदालतों में धज्जियां उड़ाई जाती हैं, क्या आपको यह नहीं दिखता। स्पष्ट है कि किसी भी मुकदमे के दौरान एक पक्ष सही होता है, दूसरा गलत, ऐसी स्थिति में गलत पक्ष का साथ देने वाले अधिवक्ता वर्ग के लिए आपके पास कोई शब्द है, क्या। आज देश में लाखों-लाख मामले बीसियों सालों से झूल रहे हैं।
आज देश में आम-खास नौकरियों में बहाली से लेकर ताबूत से लेकर तोप की खरीददारी में रिश्वतखोरी का आरोप लगता रहता है। तमाम जांच आयोग बनाये जाते हैं और वे सालों-साल जांच कार्य में उलझे रहते हैं।
क्या आप इन समस्याओं से वाकिफ हैं,भ्रष्टाचार की बात उठाने तथा इसके लिए संघर्ष करने वाले आप जैसे प्रबुद्ध से उम्मीद है कि आप अपनी पूरी नैतिक जिम्मेदारी के साथ इन मुद्दों को भी उठायेंगे। शायद आपको याद हो, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के हत्यारों को सजा देने में हमारी न्यायपालिका को नौ साल लग गये थे, ऐसे में आम आदमी की पीड़ा तथा न्याय पाने के लिए उसे किस चक्की में पिसना पड़ा है,संभवतः आप इससे अनजान हैं।
आपको तो दुःख है, नाराजगी है कि प्रधानमंत्री तथा न्यायाधीश क्यों नहीं आपके इस तथाकथित जन लोकपाल के अंकुश के नीचे आ रहे हैं।
अन्ना, अगर आपमें थोड़ी भी संजीदगी है तो आप उठ खड़े होइये। हमारे उन भ्रष्ट शिक्षकों,डॉक्टरों,पुलिस व्यवस्था,भ्रष्ट न्यायपालिका, जमाखोर व्यवसायियों के खिलाफ भी स्वर मुखर करें। जीवन से लेकर मरण तक भारत का हरेक नागरिक विभिन्न समस्याओं से जूझ रहा है। एक ओर संविधान में उन्हें बराबरी का हक है, दूसरी ओर आरक्षण,तुष्टीकरण, वोटों का समीकरण, जातिगत भेद-भाव की उतनी ही गंभीर समस्या है। संभवतः आपका चश्मा अभी धुंधला देखता है।
किसी बड़े वृक्ष की फुनगियों की छंटाई कर आप भ्रष्टाचार मुक्त देश-समाज की उम्मीद पाल रहे हैं तथा युवाओं को ऐसा ही स्वप्न दिखा रहे हैं लेकिन आपने तो समस्या का गिरेबां तक ही नहीं पकड़ा, या कड़े शब्दों में कहूं, तो आप लगता है, इन सबसे अनजान ही हैं।
शराबबंदी, भजन-कीर्तन, जल संरक्षण जैसे कतिपय सेवामूलक कार्यों के कारण समाज में निश्चित तौर पर आपकी बेहतर पहचान बनी है तथा आप इसके हकदार भी हैं, लेकिन यहां आपको यह नहीं भूलना चाहिए कि महान बनने के लिए आपको महान जिम्मेदारियों का भार भी वहन करना पड़ेगा।
राजनीतिक भ्रष्टाचार की चर्चा तो आपने खूब की है लेकिन देश के निजी औद्योगिक घरानों द्वारा अपने कर्मचारियों पर किये जा रहे शोषण के संबंध में आपने अब तक चुप्पी क्यों साध रखी है। देश में लाखों किसान ऋणभार के कारण आत्महत्या करने के लिए मजबूर हो रहे हैं, आपने कभी उनके प्रति चिंता व्यक्त की है। देश का आम नागरिक आज आपका साथ क्यों दे रहा है, जरा इस पर विचार करें, उसे आशा बंधी है कि एक अहम मुद्दे को आपने उठाया है,संभवतः इससे उनकी समस्याओं का निराकरण होगा,लेकिन यह बात हकीकत से अत्यंत दूर है। कारण कि जब तक घर के भीतर और बाहर, दोनों ओर सफाई नहीं होगी, तब तक गंदगी दूर नहीं की जा सकती है। किसी भी सरकारी महकमे को आप उठा लीजिये,ए राजा,सुरेश कलमाड़ी जैसों की तो बात दूर आम चपरासी, जो हमारे-आप के बीच के ही लोग हैं, चौराहे पर खड़ा कांस्टेबल, जो हमारे ही समाज का एक अंग है, बिना मुट्ठी गर्म हुए इंच भर भी नहीं सरकता है। आप मुर्दाघाट जाइये, वहां भी मुट्ठियां गर्म करनी पड़ेंगी। जीवन से लेकर मरण तक हर कार्य में आपको सुविधा शुल्क चुकाना ही पड़ेगा।
क्या जैसा कि आप सबों का दावा है, 101 नंबर पर डायल करते ही जन लोकपाल आयेगा तथा अलादीन के जिन्न की भांति
सारी समस्याएं और रग-रग में समाये भ्रष्टाचार को समाप्त कर देगा। अगर ऐसा है, तो आपका स्वागत है, अन्ना।
लेकिन पहले आप तो स्वयं के व्यवहार में पारदर्शिता बरतें। यह तो बताएं कि किस आधार पर जन लोकपाल में निगरानी हेतु लोकपाल नियुक्त किये जायेंगे।
कोई भी लड़ाई अगर सही तरीके से नहीं लड़ी गयी तो उसका सही निष्कर्ष कभी नहीं निकलता है। आपके इस आंदोलन का हश्र भी कहीं जेपी आंदोलन की भांति न हो, इस कारण एक बार ठहर कर इन सभी मुद्दों पर भी विचार करें। आज देश जब आपको मार्गदर्शक की भूमिका में देख रहा है, तब थोड़ा इन मसलों पर भी देश को अपने विचारों से अवगत कराने का कष्ट उठायें। यकीन मानिये, मेरे जैसे कुछ अल्पबुद्धि वालों को ये समस्याएं काफी पीड़ा पहुंचाती हैं, लेकिन सही हकीम के अभाव में अपनी दुखती रग को हम अपने एकांत में सहलाते रहते हैं, कारण कि फिलवक्त कोई रहनुमा सामने नहीं दिख रहा था।
अब जब आप मशाल थाम निकल पड़े हैं, तो जरा इन समस्याओं के निराकरण के संदर्भ में अपने विचारों से देशवासियों को प्रभावित कर भ्रष्टाचार रूपी दानव से समूल छुटकारा दिलाने की क्या आपके पास कोई कार्यसूची है,है तो उसे भी क्रमवार विश्लेषित कर देश के सामने रखें।
यकीन माने, यह समय की जरूरत है और आवश्यक भी है। शायद आप तक मेरे ये तुच्छ विचार और सवाल पहुंच पायें और आप इनके उत्तर देने की जहमत उठा सकें, तो यह देशवासियों के लिए कल्याणकारी ही साबित होगा।
इसी कामना के साथ....
कमलेश पांडेय