Tuesday, July 28, 2009

संकल्प

संकल्प

जिंदगी
क्यों इस कदर बदरूप होती जा रही ?

कल तक जिनके चेहरे थे
जाने -पहचाने

अचानक
उन चेहरों पर उभर आईं हैं
ऐसी लकीरें
जिन्हें देख
भेड़ियों का ख्याल उभरता है।

आदमी
अब
क्यों नहीं दिखता
सहज इन्सान की भांति

चारों ओर दिख रहे हैं
सिर्फ
रीछ, भालू, मगरमच्छ, घड़ियाल

जाने कहां
खोया है
एक आदमी। 

भयावह कंक्रीट के जंगल
में सांसें हैं
कहां गुम ?

एक फूल
एक मुट्ठी हवा
पकड़ने को बेताब
बच्चा
कूदते कूदते
थक हार गया

आंसू भी थम गये
सपने भी। 

कल
ऐसा न हो
आओ
हम संकल्प लें।

कमलेश पांडेय

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