स्वतंत्रता दिवस के मौके पर
कल
मैंने सोचा
मिली कौन सी आजादी है
मुझे ?
अपने बास को देख
किसी
कुत्ते की पूंछ सी अचानक झुक जाता हूं
मैं क्यों ?
सुना मैंने
आजादी हमें देती है
बराबरी का अधिकार
सिर उठा बात कह पाने
का साहस
पर नहीं,
पाया मैंने
हममें काफी कुछ
अब भी
जंजीरों से जकड़ा है
हमारे सपने, हमारे वेतन
हमारी खुशियां, हमारा समय
सब कुछ तो
अब भी कैद है।
बस
कैद करने वाली मुठ्ठियां बदली हैं
बदले हैं वे गुनहगार चेहरे।
जिनके
हृदय में ठहाके लगा रहे हैं
खौफनाक भेड़िये
वे चेहरे पर हंसी बिखेरे
हमारे सामने परसते हैं
अपनी खैरात।
गुलामी अब भी कायम है
समय पर उनकी जकड़ है
सपनें बदशक्ल हैं
हम सब बंटे हैं।
-०-
कमलेश पांडेय
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