Thursday, September 22, 2011

कितने कारगिल और (विस्तार से)

कितने कारगिल और
कमलेश पांडेय
मैं एक अफसानानिगार हूं। और कहानी कहना ही मेरा धर्म है। कहानियां तमाम तरह की होती हैं, कुछ सच्ची, कुछ झूठी, जैसे कि लोगों के चेहरे होते हैं। चेहरे और कहानी गढ़ने में कई लोग उस्ताद होते हैं पर जब सच्ची कहानी और सच का चेहरा आपके हाथों हो तो झूठ की चाशनी की क्या जरूरत...
सीधे-साफ शब्दों में पेश-ए-खिदमत है, एक ऐसी ही कहानी जो हमारी इस मुकद्दस जमीं पर वाकई घटी है। फर्क सिर्फ इतन ही है कि इसे कहानी बनाने के लिए लोगों के नाम और जगह मैं नहीं बता रहा हूं। तो हुजूर सुनें.......


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जवानो, अंटेशन... तुम सब सावधानी के साथ आगे बढ़ोगे। तुम्हें ध्यान रखना है कि तुम सब नीचे खुले में हो तथा दुश्मन ठीक तुम्हारे ऊपर। तुम्हें बीहड़ लड़ाई लड़नी है। ऊंचाई पर होने के कारण दुस्मन फायदे में है। ऐेसे में भरसक आड़ लेकर तुम सबको गुरिल्ला वार करना है। जोश में आ, खुले में आने पर अपना नुकसान होगा। ऐसे में होशियारी से आगे बढ़ो तथा दुश्मन के सिर पर पहुंचकर अटैक करो। वे बंकर में छिपे हैं, अतः तुम सब लेटकर और घेराबंदी कर आगे बढ़ो। समझे.. कोई शक.. मेजर ने कहा।
सैनिक जानते थे कि इस प्रकार खुले में रेंगते हुए जाकर वार करना सीधे मौत के मुंह में जाना है, पर सेना में जवाब देने की गुंजाइश नहीं होती है, ऐसे में एड़ियां खटका कर कहा ... नो सर।
कश्मीर के इस खूबसूरत अंचल में सियासती नफरत की रेंगती पिछली आधी सदी के परिणाम स्वरूप झाड़ियों की ओट लेकर भारतीय सेना की टुकड़ी धीरे-धीरे रेंगते हुए आगे बढ़ रही थी। ऐसी खूबसूरत फिजा, जिसमें सिर्फ माशूका का हाथ थामे खो जाने की ही ख्वाहिश हो, हथियारों को लादे घुटनों और केहुनी के बल रेंगते हुए टुकड़ी को लगातार ऊपर चढ़ना पड़ रहा था।
मई के पहले सप्ताह में आदेश पाकर यह टुकड़ी आनन-फानन कारगिल पहुंची थी। सैनिक अधिकारियों को अनुमान था कि इस बीहड़ क्षेत्र की सैकड़ों चोटियों पर पाकिस्तानी घुसपैठिये बंकरों में घुसकर इस घात में बैठे हैं कि भारतीय सेना की स्थिति कमजोर होते ही श्रीनगर से लेह जाने वाले हाईवे पर कब्जा कर पूरे पहाड़ी क्षेत्र पर अधिकार जमा लेंगे। अपने इस इरादे को पूरा करने के लिए पाकिस्तानी घुसपैठियों ने बड़े धीरज के साथ जाड़ा भर बंकरों में छिपे रहकर इंतजार किया था। हालांकि इसकी भनक पाकर ब्रिगेडियर सुरेन्द्र सिंह ने लगातार रक्षा विभाग के अधिकारियों को सूचित भी किया था पर सरकारी अमला तो दिल्ली से लाहौर को रवाना होने वाली बस की रवानगी की खुशी की खुमार में डूबा हुआ था। बहरहाल कुछ चरवाहों ने जब भारतीय सैन्य अधिकारियों को पाक घुसपैठियों की गतिविधियों से अवगत कराया तब कहीं सैन्य अधिकारियों, खासकर सरकार की गफलत टूटी।
कारगिल पर घुसपैठियों के कब्जे की खबर जब पूरी तरह फैल गयी तब रक्षा मंत्रालय ने थल सेना और वायुसेना की बटालियनों को तुरन्त श्रीनगर और कारगिल पहुंचने का आदेश दिया, जिसके बाद इस क्षेत्र में सेना की बटालियन और पत्रकार धड़ाधड़ पहुंचने लगे।
26-MAY-1999
आज आपरेशन विजय का नाम घोषित करते हुए मेजर ने हुक्म फरमाया- सैनिको. दुश्मनों पर विजय हासिल करना ही हमारा टारगेट है।
बस तब से भारतीय सैनिक छिपते-छुपाते दिनों-दिन आगे बढ़ रहे थे पर ऊंचाई पर बैठे दुश्मनों से वे कहां तक बच पाते। घुसपैठियों के वेश में पाकिस्तानी सैनिक उन पर गोलियां तथा मोर्टार व लांचरों से हमला कर रहे थे। बाध्य रेंगती भारतीय सैनिक टुकड़ियों को रुक-रुककर गोलीबारी का जवाब भी देना पड़ रहा था। भारतीय सैनिकों को अ तक पता चल चुका था कि घुसपैठिये सीमा नियंत्रण रेखा के इस पार कारगिल, बटालिक, द्रास और मुश्कोह घाटी के लगभग 70-80 किलोमीटर के दायरे में फैल गये हैं और भारतीय थलसेना तथा वायुसेना इन पहाड़ी क्षेत्रों में हमला कर इस क्षेत्र को पुनः अपने कब्जे में लेने की दुष्कर लड़ाई में जुटी थी। खासकर तब, जब पाकिस्तानी घुसपैठिये बंकरों में छिपे हुए हैं और शून्य से भी नीचे के तापमान पर भारतीय सैनिकों को रेंगते हुए आगे बढ़ना पड़ रहा है।
24 जून 1999
इसी प्रकार रेंगते-सरकते हुए अमरनाथ की टुकड़ी ने एक पहाड़ी चोटी को अपने कब्जे में कर लिया। यह पहाड़ी चोटी तोलोलिंग के पास ही टाइगर हिल, नॉल और प्वांइट 5140 नामक पहाड़ियों की उन चोटियों के पास था, जिन पर पाकिस्तानी घुसपैठिये जमे रहकर जोरदार लड़ाई लड़ रहे थे।
28 जून 1999
मेजर ने दो अन्य टुकड़ियों के साथ मिलकर अमरनाथ की इस टुकड़ी को टास्क दिया- 'रात में ही हमला कर टाइगर हिल पर कब्जा कायम करो।'
अमरनाथ अपने साथी सैनिकों के साथ तेज बर्फीली हवा और शून्य से भी नीचे के तापमान में घण्टों रेंगते हुए आगे बढ़ रहा था। मेजर ने आदेश दिया- 'आगे बढ़ो और दुश्मन पर अचानक हमला करो।' रात आधी बीत चुकी थी। दुश्मन के सिर पर पहुंच मेजर ने अमरनाथ और राघवन को आर्डर दिया- 'दुश्मन के बंकर के पास सावधाऩी से पोजीशन समझ कर आओ।'
अमरनाथ और राघवन रात के अंधेरे में घुल-मिल दबे पांव टोह लेकर वापस लौटे और मेजर को अवगत कराया। मेजर ने तुरंत आदेश दिया- 'दुश्मन को तीन ओर से घेरकर हमला करो।'
हमला शुरू होते ही दोनों ओर से गोलियां, ग्रेनेड, स्पेलेंडर, स्नाइपर बरसने लगे। अमरनाथ और राघवन पूरे जोशोखरोश में सबसे आगे थे। जोश में अमरनाथ ने छह और राघवन ने चार घुसपैठियों को मार गिराया। तभी अचानक कही से आई गोली ने राघवन का सीना छलनी कर दिया। राघवन को गिरते देख अमरनाथ किसी जुनूनी की भांति चीखते हुए घुसपैठियों पर टूट पड़ा। किसी उन्मादी की भांति झूमते हुए अमरनाथ आगे बढ़ता गया और दो मिनट में उसने घुसपैठियों के दो बंकरों को उड़ा दिया। बंकर उड़ते ही जोश में धड़धड़ाते हुए भारतीय टुकड़ी आगे बढ़ आई। हठात् किसी कोने से किसी घुसपैठिये की चलाई गोली अमरनाथ के सिर में लगी और वह तत्क्षण निष्प्राण वहीं गिर पड़ा। उसकी खुली आंखें नहीं देख पाईं कि उसके साथी सैनिकों ने कब बचे घुसपैठियों का खात्मा कर चोटी पर कब्जा जमा लिया।
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हुजूर ! सरकारी प्रचार तंत्र के बयान को आधार माना जाये तो इस 'युद्ध जैसी परिस्थिति' में अमरनाथ जैसे सैकड़ों जवानों ने अपनी जान गंवा विभिन्न पहाड़ी चोटियों पर पुनः कब्जा हासिल किया। पर इन सैनिकों की पीड़ा से अनजान सरकारी अमला इस कूटनीतिक गफलत में ही फंसा था कि इसे युद्ध घोषित किया जाये अथवा घुसपैठ। हरसंभव कूटनीतिक प्रयास जारी थे, यहां तक कि छिपे तौर पर दूत तक भेजा गया पर पाकिस्तानी हुक्मरानों की ओर से कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं मिल पा रही थी।
हुजूर ! हथियारों की तिजारत मं बड़ा ही मुनाफा है। लड़ाइयां पहले सीधे सीधे दो राजाओं, फिर दो देशों के बीच होती थीं पर अब उग्रवाद की आड़ में यह धंधा फल-फूल रहा था। कश्मीर की वादियां भी भला कैसे अछूती रहतीं।
खैर, जीवन और फूल हर परिस्थितियों में खिलते और मुर्झाते हैं। भले ही सियासी जंग मैदान में लड़ी जाये अथवा वाक्युद्ध के रूप में राष्ट्रसंघ के नकली अखाड़े में। अपनी जान जाते देख घुसपैठियों ने अपने फौजी शासकों और राजनीतिज्ञों पर दबाव डाला तो बाध्य होकर पाकिस्तानी प्रधानमंत्री चीन और अमेरिका का समर्थन हासिल करने गये। अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों के मद्देनजर मियां नवाज शरीफ को समर्थन नहीं मिला, विपरीत अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने दबाव डाला कि पाक घुसपैठियों की वापसी सुनिश्चित की जाये।
4 जुलाई 1999
नवाज शरीफ ने इस बात की लिखित सहमति बिल क्लिंटन को जताई और पाकिस्तान लौटे।
16 जुलाई 1999
पाकिस्तान और भारतीय सैन्य प्रमुखों की बैठक अटारी में हुई औऱ पाक घुसपैठियों के वापसी की समय सीमा निर्धारित की गयी।
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हुजूर ! इस अघोषित अनिर्णीत युद्ध में आहत भारतीय सैनिकों ने जब सरकार के इस राजनीतिक निर्णय को सुना तब उनका खूल खौल उठा। अपनी गफलत से अपनी ही जमीन को मुक्त कराने के लिए इतने सैनिकों का खून बहाना पड़ा तब थोड़ा और खून बहाकर आर-पार का ही फैसला हो जाता। जब अमेरिकी हस्तक्षेप की जरूरत ही थी, तो बेकार हमारा खून बहाया गया। मन मसोस भारतीय सैनिक आदेशों का पालन करते रहें।
26 जुलाई 1999
सेना की पंद्रहवीं कोर के लेफ्टिनेंट जनरल कृष्णपाल ने जब समूे कारगिल क्षेत्र को पाकिस्तानी घुसपैठियों से मुक्त घोषित किया तब कहीं सरकार ने चैन की सांस ली।
इस प्रकार अमरनाथ के जीवनावसान के साथ एक युद्ध का पटाक्षेप हुआ पर क्या जीवन के दर्द का चंद शब्दों में बखान किया जा सकता है...?
हुजूर ! हो सकता हो कि आपको अमरनाथ कम ही याद हो, क्योंकि आपने उसके साथ चंदेक घण्टे ही गुल्ली डंडा या फुटबाल के मैदान में गुजारे होंगे अथवा दूरदर्शन पर उसकी बहादुरी के किस्से अथवा फोटो देखकर अहसानमंद हैं कि अमरनाथ नामक सैनिक ने अपनी शहादत देकर भी सीमा को आपके लिए महफूज रखा। खैर, संभवतः थोड़ी देर के लिए सही, आप भी दुःखी जरूर हुए होंगे।
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दुःखी तो एकबारगी पूरा कस्बा भी हुआ थाष दर्द से अमरनाथ की पत्नी गौरी पछाड़ खा बेहोश हो जा रही थी। छाती कूट-कूट कर वह रो रही थी- 'अरे! रह जाते हम भूखे। कौन कुवक्त में उनसे कहा था नौकरी पकड़िये। क्या बाप-बड़े भाई की कमाई पर जिंदगी नहीं कटती है.. सुन लेते जिंदगी भर ताना। अब तो जिंदगी अंधार हो गयी, माई!अब मोर का होई, रे माई!'
सुनने वालों का कलेजा कभी टीसता, तो कभी वे कान बंद कर लेते। आखिर कौन कितनी देर तक किसी दूसरे के दुःख में साथ दे।
अमरनाथ का शव जब उस बबाली ताबूत (किस्सा कभी बाद में) में ऱखकर कस्बे में लाया गया तो लगा मेले का माहौल उमड़ आया। कलेक्टर, अफसरों की बात छोड़िये, पता नहीं कहां-कहां के मंत्र दरवाजे पर जुटने लगे। तरह-तरह के झंडे लेकर कहां से सैकड़ों लोग वहां पहुंच गये। सैनिक सलामी के बाद राइफल उलटी कर मातमी धुन बजाने के बाद जब अमरनाथ की चिता को आग लगायी गयी तो गौरी के बचे अरमान भी जलने लगे और चिता की लपटों में उसे जिंदगी का अंधकार दिख रहा था।
अमरनाथ का ही तो आसरा था उसे, अन्यथा बाबूजी, सास तथा जेठ-जेठानी का व्यवहार तो कहने लायक नहीं। जेठानी और सास की चक्की में पिसती गौरी को जीवनयापन की इस लड़ाई से निाल पाने वाले निर्णायक युद्ध में पराजित अमरनाथ ने गौरी का साथ हमेशा के लिए छोड़ दिया, जबकि कुछ दिनों पहले ही सेना में बहाल होने के बाद अमरनाथ ने सोचा था कि फैमिली क्वार्टर मिल जाने के बाद गौरी को साथ बुला लेगा पर अब तो गौरी की जिंदगी ही बेलगाम हो गयी। जलती चिता देखकर धार-धार बह रहे आंसुओं और विचारों पर रोक तब लगी, जब उसने केंद्रीय मंत्री को अपनी ओर देखते और घोषणा करते पाया-

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