ओ एक कतरा सुख!
तुम्हारे लिए
आजन्म प्रतीक्षा की है
कई-कई
बार
झांके हैं
मैंने
तुम्हारी आंखों के कोने।
तलाशें है
शब्दों के भी मर्म।
अपरिचित होठों पर फूटती हंसी
खुशी से छलकती आंखों में हैं दिखीं
कई बार तुम्हारी झलकियां।
ओ एक कतरा सुख!
कई बार तुम
लडख़ड़ाते बच्चे की भांति
बगल से गुजर गये
थलमलाते
बढ़ाई थीं उंगलियां मैंने
तुम्हें थाम सीने में सजोने को
पर
तुमने तो
मुंह ही मोड़ लिया
तुम्हें भी तो चाहिए
संगी कोई ऐसा
जो
तुम सा ही होता।
काश!
भूल पाता मैं
बोझिल होते जा रहे शब्द
भोगी/ ओढ़ी तमाम अनुभूतियां
और
चल पड़ता
तलमल-थलमल
तुम्हारी उंगली थाम।
- कमलेश पांडेय
18-11-11, (बक्सर स्टेशन, शाम 7.30 बजे)
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