Friday, July 31, 2009

सपने

मैं थोड़े सपने बोता हूं
थोड़े सपने बांटता हूं

बिना
सपनों के
मुझे अपने
होने पर ही शक होता है

नहीं
जानता
बिन सपनों के
आदमी कैसे होता है ?

थोड़े- बहुत
बचे हैं पास अपने

उन्हें सजोने
उन्हें बढ़ाने

मैं बोता सपने
बांटता थोड़े सपने।

बंधु
गर
अब भी
बचे हों
तुम्हारे सपने

आओ
मिल बांटे हम-तुम-
थोड़ी उन बच्चों को दें
जिनके पीठ 
खोखले शब्द भरे
बस्तों के बोझ से दब दुहरे

उन बूढ़ों को थोड़ी दें
जो अपने में निपट अकेले

उन युवकों में बांटे
जिनकी आंखों 
स्थायी टंगे नौकरियों के इश्तहार

थोड़ी उन आंखों में बोयें
जिनमें
है खुशियों की सिर्फ निपट प्रतीक्षा

बांटो- बांटो- बांटो
सपने।
सपने ही तो जीने की पहचान हैं।
-०-
कमलेश पांडेय

Thursday, July 30, 2009

मित्र

( मित्रता दिवस पर विशेष)
मित्र

अंधेरे में साथी जब
सूझती नहीं है राह
भय से
लरजते कांपते हैं पैर
सामने घना अंधेरा
राह अदृश्य।
सामने कौन- कैसा
पहचानना
मुश्किल।
वाकई घना है
अंधेरा,
दिन के उजाले में
भी
पहचानना मुश्किल
कई बार
अपने तक को ?
चेहरे की लकीरें
ढंक लेती हैं
नहीं पहचानने देती हैं
सही चेहरे, सही रास्ते, सही लोग।
वाकई
चेहरों को पहचानना
काफी कठिन होता है
कारण
अक्सर
हम खुद से भी
कतराते हैं
ऍसे में
साथी
कह पाना मुश्किल होता है
क्या
हम आदमी हैं ?
प्रश्न अनुत्तरित -
आओ
उत्तर ढूंढे
मिलकर हम-तुम
-०-
कमलेश पांडेय

Wednesday, July 29, 2009

तुम चुप क्यों हो ?

तुम चुप क्यों हो -
लंबे अरसे से
सोचता हूं मैं
वजह क्या है
होठों के सिले होने की
कई बार
मैंने देखा है
आंख मूंद कर
निकल जाते हैं हम
अपने साथ के लोगों को
बेचैन छोड़
उनकी अपनी पीड़ा के साथ
हमें भी तो
अपने सलीब ढोने पड़ते हैं
कई- कई ईसा
अपने सच को
ताजिंदगी
ढोते रह जाते हैं।
लहूलुहान आत्मा
को नहीं मिलती कोई राहत।
सच है-
जीवन आज सलीब बन चुका
और
सिसिफस की भांति शापित
हम सब
दुःखों को परवान
चढ़ाते रहते हैं।
दुःख तेरा हो या मेरा
वाकई
शिला सम भारी होता।
अक्सर वह
हमारे आंसुओं
हमारे होंठों
पर
टंगा होता।
-०-
कमलेश पांडेय

Tuesday, July 28, 2009

संकल्प

संकल्प

जिंदगी
क्यों इस कदर बदरूप होती जा रही ?

कल तक जिनके चेहरे थे
जाने -पहचाने

अचानक
उन चेहरों पर उभर आईं हैं
ऐसी लकीरें
जिन्हें देख
भेड़ियों का ख्याल उभरता है।

आदमी
अब
क्यों नहीं दिखता
सहज इन्सान की भांति

चारों ओर दिख रहे हैं
सिर्फ
रीछ, भालू, मगरमच्छ, घड़ियाल

जाने कहां
खोया है
एक आदमी। 

भयावह कंक्रीट के जंगल
में सांसें हैं
कहां गुम ?

एक फूल
एक मुट्ठी हवा
पकड़ने को बेताब
बच्चा
कूदते कूदते
थक हार गया

आंसू भी थम गये
सपने भी। 

कल
ऐसा न हो
आओ
हम संकल्प लें।

कमलेश पांडेय