Sunday, December 10, 2023

विक्टोरिया मैदान से गुजरते हुए

मैं
कोलकाता के
विक्टोरिया मैदान से होकर गुजरता हूं
हरियाये
वर्षा में धुले
निखरे पेड़, चिकने झूमते पात।
सड़कें
पानी में भीगी
साफ धुली
बरसात के इस मौसम में।
छोटे टेंट वाले
हरे भरे पेड़ों से घिरे
क्लब के मैदानों में
फुटबाल
खेलते, दौड़ते किशोर
मानो लगी हो
उत्साह व स्फूर्ति में होड़।
सड़कों पर
भागते वाहनों का अनवरत सिलसिला
मानो
सहज बह रहा हो जीवन
हठात
कहीं से कुत्तों का झुंड
हौंजार मचाता आया
अचानक, मुझे
अपने दफ्तर की याद आ गयी।
-0-
कमलेश पांडेय

Friday, August 4, 2023

चल मेरे घोड़े टिक-टिक-टिक


कमलेश पांडेय
इस कस्बे में साल में एक बार तो जैसे जान आ ही जाती है। कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर हर साल संकरे से नाले के किनारे मैदान में मेला लगता है, जिसमें तमाम जगहों से आये दुकानदार रंगबिरंगे कपड़ों की छोलदारियों से अपनी चलताऊ दुकानें सजाते हैं। कम से कम बीस-पच्चीस दिनों तक आस-पास के दसों कोस के गांवों के लोगों का जमावड़ा इस मेले में जुटता ही रहता है। पान, कपड़ा, चूड़ी से लेकर थेटर, सरकस क्या नहीं जुटता है, इस कस्बाई मेले में। आस-पास के गांवों की औरतें रोज हैसियत भर बन-संवर कर आपस में मेल-मुलाकात के बहाने या घर से बाहर निकलने के लिए टिकुली, सिदूर जैसी जरूरी सामानों को खरीदने के बहाने आती हैं। माताओं के पीछे बंदरी फौज का आना स्वाभाविक है। बस उसी बंदरी फौज के चलते खिलौने वाले भी अपनी दुकानें इस कस्बे में हर साल लाते हैं।
बच्चों की इस चहल-पहल तथा औरतों व मर्दों के इस रोज के आवागमन से कस्बे में बीस-पच्चीस दिनों के लिए एक रौनक सी छा जाती है। हालांकि इस मेले से कस्बे के निवासी बहुत ज्यादा उल्लसित नहीं दिखते हैं, क्योंकि उनके लिए इसमें ऐसा कुछ अनोखा नहीं रहता है। परंतु वे निरपेक्ष भी नहीं रह पाते हैं तथा मेला शुरू होने के चार-पांच दिनों बाद वे भी अपनी निष्क्रियता तोड़ मेले में जुट जाते हैं तथा रोज शाम उनके कदम खुद ब खुद मेले की ओर चल पड़ते हैं। इस प्रकार मेला धीरे-धीरे जोर पकडऩे लगता है।
मेला कस्बे में बांध के ठीक नीचे लगता है, जहां से उस नाले के लिए ढलान शुरू हो जाती है। बांध के ठीक ऊपर रघुआ अपनी मड़ई में रोज रात मेले वालों को कोसता रहता है। रोज देर रात तक मेला घूमने वाले हल्लागुल्ला मचाये रखते हैं। तिस पर सैकड़ों दुकानदार और बिकने को आये हजारों मवेशी आस-पास इतनी गंदगी फैला देते हैं कि सांस लेना तक दूभर हो जाता है। हालांकि बीस-पच्चीस दिनों तक बिजली की चकमक रोशनी के बीच गंवईं औरतें भी इस कस्बे में जान डालती सी लगती हैं।
खैर, इस बार रघुआ खुश था। उसका बेटा सोनू इस समय यहीं था। संयोगवश पिछले दो-तीन साल मेले के समय वह लगातार अपने मामा के यहां था। इस बार उसे मेले में घुमाने का बड़ा आनंद आयेगा। रघुआ कचहरी पर जूते गांठने और पालिश करने का काम करता है। जैसे-तैसे दाल-रोटी का जुगाड़ बैठ ही जाता है। आज महंगाई के इस जमाने में अक्सर लोगों ने बचत के ख्याल से प्लास्टिक के जूते व चप्पल पहनने शुरू कर दिये हैं, इस तर्क के साथ कि बरसात में जूते खराब हो जाते हैं, या इन चप्पलों में हवा काफी अच्छी लगती है। हाथ पैर धोने में बड़ी आसानी रहती है, ऐसे में आप रघुआ की परेशानी समझ ही सकते हैं। वैसे रघुआ बड़ा ही गमखोर है। अपनी बात वह किसी से कहता नहीं है, नहीं बेमतलब की बात करता है।
बहरहाल रघुआ ने सोच रखा था कि वह सोनू को मेला घुमायेगा, अत: दो-चार दिनों से उसने छिटपुट पैसे बटोरने शुरू कर दिये थे। सोचा था, सोनू को इस मेले में वह कोई नई शर्ट पैंट भी दिला देगा। जी-जान से रघुआ अपनी इस सोच को पूरा करने में जुट गया था। रघुआ के हाथों जूते काफी तेज चमकने लगे थे।
जैसे-तैसे करके रघुआ ने आठ-नौ दिनों तक कटौती करके पचास रुपये जमा कर लिए थे। अब सोनू को लेकर मेले में जाया जा सकता है। शाम को काम से लौटकर रघुआ सरकारी हैंडपंप पर न सिर्फ अपने शरीर को ही मल- मलकर नहाया बल्कि आज उसने सोनू को भी खुद अपने ही नहलाया।
रघुआ की घरवाली अवाक थी। ..क्या बात है, आज रघु इतना खुश क्यों है?..
पूछा भी-.. कहीं जाना है क्या?..
रघुआ ने कहा - ..हां! चलो आज मेला चलते हैं।..
रघुआ की पत्नी अवाक रह गयी। सोचने लगी - ..क्या बात है? आज अचानक रघु तैयार हो गया है। दो दिनों पहले तक तो मेले के नाम से ही बिदक जाता था, आज अचानक कैसे तैयार हो गया?..
आश्चर्य में डूबी वह मड़ई के भीतर आई। तभी रघुआ ने बदन पोंछते हुए कपड़े मांगे।
उसकी बीवी ने आदतवश जेब में हाथ डाल दिये। देखा एक नया-नकोर पचास का नोट। उसे आश्चर्य हो आया? ..रोज तो कितनी किल्लत की बात करता है और फिर सारा पैसा तो वह खुद रखती है, खर्च करती है, ऐसे में रघुआ के पास पचास का नोट?..
उसे रहा नहीं गया। पूछ ही बैठी -.. ये पचास का नोट कैसा है?..
सोनू को कपड़े पहनाता हुआ रघुआ बोला -.. चलो, मेला चलेंगे। वहां तुम्हारे लिए कुरती तथा सोनू के लिए कपड़ा खरीदेंगे।..
बीवी ने फिर दुहराया -.. पर पैसा आया कहां से, किसी से कर्ज लिया क्या?..
रघुआ ने मुस्कराते हुए कहा -.. नहीं भाई, मेहनत कर मेले के लिए बचाया है। अब चलो भी जल्द तैयार हो जाओ।..
उत्फुल्ल मन रघुआ की बीवी भी जल्द मेले के लिए तैयार होने लगी। सोनू के तो पैर ही जमीन पर नहीं पड़ रहे थे। थोड़ी देर बाद ही पचास का नया-नकोर नोट जेब में धरे रघुआ अपनी बीवी और बच्चे के साथ गर्व से इठलाता मेले की ओर बढ़ता जा रहा था।
अगल-बगल की गंवईं औरतों को देख रघुआ ने बीवी से चुहल की।
..देखो, कैसे कपड़ा पहनी है, देखो वो कैसे पाउडर पोते है, मानो मुंह में आटा थोप कर चली आई है।..
तुनक कर बीवी ने जवाब दिया- ..ऊ सब पाउडर पोते, चाहे लाली लगाये, तुमको का, तुम अपना देखो।..
..हा..हा..हा, अपना का देखें, रोज तो तुमको देखते ही हैं। आज मौका है, देखने दो...।..
..धत, सीधे चलो..- कहते हुए उसकी बीवी ने सबकी नजर बचाते हुए उसे एक धौल लगाई।
इसी तरह ठिठोलियां करते हुए वे मेले में पहुंच गये। तमाम रंगबिरंगी सजी दुकानों और लोगों के बीच रघुआ और उसकी बीवी, बच्चा मानो खो गये।
बजाज पट्टी में रघुआ की बीवी ने रघुआ के काफी इसरार करने पर एक ब्लाउज ले ली। पूरे बीस रुपये की। आज के पहले इतनी महंगी ब्लाउज उसने कभी नहीं पहनी थी। अत: गर्व से अपने रघु की ओर देखे जा रही थी। अब वे तीनों सोनू के कपड़ों के लिए आगे बढ़ चले। सोनू ने अपने लिए जो कपड़ा पसंद किया; दुकानदार उसे पचास रुपये से नीचे देने के लिए तैयार ही नहीं हो रहा था। जैसे-तैसे काफी हील हुज्जत और नाटक के बाद रघुआ ने उसे पैंतालिस रुपये में इस शर्त पर मनाया कि वह बाकी रुपये दो दिनों बाद दे जायेगा। सोनू वह कपड़ा लेकर उछलने लगा। रघुआ और उसकी बीवी दोनों फूल उठे। वहां से अब तीनों आगे बढ़े।
पर पता नहीं क्यों, रघुआ को अब मेले की रौनक फीकी लगने लगी। एकाध जगह उसकी बीवी दुकानों पर ठिठकी भी फिर झट आगे बढ़ चली। सोनू यहां वहां आइसक्रीम और मूंगफली खाने के लिए चिल्लाने लगा। वह तो भला हो सोनू की मां का। दो-चार रुपये उसने चुरा रखे थे। वरना मेले में सोनू काफी ऊधम मचा देता।
काफी देर तक इधर उधर भटकने के बाद वे तीनों लौटने लगे। सोनू थक गया था। पर खिलौना मंडी में आते ही जैसे सोनू की सारी थकान खो गयी। एक-एक दुकान पर वह अडऩे लगा। पहले तो रघुआ ने उसे फुसलाया, ..चलो, बेटा बहुत देर हो गयी है। घर चलो.. पर सोनू माने कैसे?
ढेर सारे बच्चे खिलौने खरीद रहे थे। वहीं खेल भी रहे थे। भला...सोनू कैसे चल देता? एक दुकान पर अड़ ही गया। वह तो सिर हिलाता जोकर तथा बड़ा सा लकड़ी का झूलता घोड़ा लेगा ही।
रघुआ काफी असमंजस में फंस गया। पैसे पास में हैं ही नहीं। दाम पूछ कर भी क्या फायदा?
जैसे-तैसे वह सोनू को समझाने लगा, पर सोनू माने तब न! उसने मानो जिद ही पकड़ ली थी।
बाध्य हो उसे मेले में ही दो-चार हाथ जमाये रघुआ ने। सिसकता सोनू वहीं जमीन पर लोट गया।
जैसे-तैसे रघुआ की बीवी ने फुसलाकर उसे गोद में उठाया और तब सब भारी मन से घर लौटे। घर पहुंचकर भी सोनू चुप नहीं हुआ। सिसकते-सिसकते ही वह सो गया। उसके नये कपड़े उपेक्षित से पड़े रहे। रात में सोते समय बिस्तर पर रघुआ की बीवी ने हौले से कहा -.. उसके लिए खिलौना खरीद ही देते। देखा नहीं, कितना सुबक रहा था।...
..अच्छा, खरीद देंगे.. कहते हुए भारी मन से रघुआ ने करवट बदल ली।
सुबह उठते ही रघुआ ने मन में ठान लिया कि वह सोनू को खिलौने लाकर जरूर देगा। अभी मेला उठने में चार-पांच दिन बाकी है। तब तक वह कुछ पैसे जमाकर ही लेगा।
कुछ पैसों को जमा करने के बाद रघुआ दो-तीन दिनों बाद मेले में अकेले पहुंचा। पर लकड़ी के झूलते घोड़े और सिर हिलाते जोकर की कीमतें तो उसके जमा किये पैसों से दोगुनी थीं। हताश हो उसने मिट्टी का सिर हिलाता जोकर तथा मिट्टी का ही एक बड़ा घोड़ा खरीद लिया। घर आकर उसने सोनू को पहले सिर हिलाता जोकर दिया। सोनू उछलने लगा। फिर उसे अपने घोड़े की याद आई। उसने पूछा -... बापू! मेरा घोड़ा कहां है?...
तब रघुआ छिपाकर रखे मिट्टी के घोड़े को सामने लाया और फुसलाते हुए सोनू से कहा -... बेटा! वह घोड़ा भाग गया और यह छोटा घोड़ा उसी का बच्चा है। तुम इसको अपने पास रखो। रोज घास-पत्ती खिलाओ। बड़ा होकर यह तुमको भी झुलायेगा।...
सोनू अपने बाप के कहे में आ गया। झट मिट्टी के घोड़े को थोड़े घास-पात नोच कर खिलाने तथा झूमने लगा।
रघुआ कभी अपने बच्चों की आंखों में झांकती खुशी की चमक को देखता तो कभी मेले की फीकी लग रही रोशनी को। पर इन सबसे बेखबर सोनू गाये जा रहा था... चल मेरे घोड़े टिक..टिक..टिक।
मेले में बदस्तूर रोशनी का चरखा घूमे जा रहा था।

Wednesday, November 30, 2011

औरत का होना सहज नहीं होता


सहज नहीं होता
औरत होना
गर्भ में थामे रखनी पड़ती है
पूरी पृथ्वी
हम हैं
जीवन है
दुःख-सुख
खुशियां- आंसू हैं
जीवन के लिए
औरत की कोख
चाहिए होती है
दुःख भुलाने को
प्रेमिका की आंखों का
एक कोना
आसान नहीं होता
औरत का होना
पूरी कायनात समेटे रहती है
अपने आंचल में वह
घर-परिवार
हम-तुम

सभी सिमटे
उसकी बांहों में
जहां बरसता है
सिर्फ स्नेह
आसान नहीं होता
किसी के प्रेम में मिले
आनंद को भुला देना
औरत होना
मानो धरती होना है।
- कमलेश पांडेय

Saturday, November 19, 2011

ओ एक कतरा सुख!


ओ एक कतरा सुख!
तुम्हारे लिए
आजन्म प्रतीक्षा की है
कई-कई
बार
झांके हैं
मैंने
तुम्हारी आंखों के कोने।
तलाशें है
शब्दों के भी मर्म।
अपरिचित होठों पर फूटती हंसी
खुशी से छलकती आंखों में हैं दिखीं
कई बार तुम्हारी झलकियां।
ओ एक कतरा सुख!
कई बार तुम
लडख़ड़ाते बच्चे की भांति
बगल से गुजर गये
थलमलाते
बढ़ाई थीं उंगलियां मैंने
तुम्हें थाम सीने में सजोने को
पर
तुमने तो
मुंह ही मोड़ लिया
तुम्हें भी तो चाहिए
संगी कोई ऐसा
जो
तुम सा ही होता।
काश!
भूल पाता मैं
बोझिल होते जा रहे शब्द
भोगी/ ओढ़ी तमाम अनुभूतियां
और
चल पड़ता
तलमल-थलमल
तुम्हारी उंगली थाम।
- कमलेश पांडेय
18-11-11, (बक्सर स्टेशन, शाम 7.30 बजे)

Thursday, September 22, 2011

कितने कारगिल और (विस्तार से)

कितने कारगिल और
कमलेश पांडेय
मैं एक अफसानानिगार हूं। और कहानी कहना ही मेरा धर्म है। कहानियां तमाम तरह की होती हैं, कुछ सच्ची, कुछ झूठी, जैसे कि लोगों के चेहरे होते हैं। चेहरे और कहानी गढ़ने में कई लोग उस्ताद होते हैं पर जब सच्ची कहानी और सच का चेहरा आपके हाथों हो तो झूठ की चाशनी की क्या जरूरत...
सीधे-साफ शब्दों में पेश-ए-खिदमत है, एक ऐसी ही कहानी जो हमारी इस मुकद्दस जमीं पर वाकई घटी है। फर्क सिर्फ इतन ही है कि इसे कहानी बनाने के लिए लोगों के नाम और जगह मैं नहीं बता रहा हूं। तो हुजूर सुनें.......


-0-
जवानो, अंटेशन... तुम सब सावधानी के साथ आगे बढ़ोगे। तुम्हें ध्यान रखना है कि तुम सब नीचे खुले में हो तथा दुश्मन ठीक तुम्हारे ऊपर। तुम्हें बीहड़ लड़ाई लड़नी है। ऊंचाई पर होने के कारण दुस्मन फायदे में है। ऐेसे में भरसक आड़ लेकर तुम सबको गुरिल्ला वार करना है। जोश में आ, खुले में आने पर अपना नुकसान होगा। ऐसे में होशियारी से आगे बढ़ो तथा दुश्मन के सिर पर पहुंचकर अटैक करो। वे बंकर में छिपे हैं, अतः तुम सब लेटकर और घेराबंदी कर आगे बढ़ो। समझे.. कोई शक.. मेजर ने कहा।
सैनिक जानते थे कि इस प्रकार खुले में रेंगते हुए जाकर वार करना सीधे मौत के मुंह में जाना है, पर सेना में जवाब देने की गुंजाइश नहीं होती है, ऐसे में एड़ियां खटका कर कहा ... नो सर।
कश्मीर के इस खूबसूरत अंचल में सियासती नफरत की रेंगती पिछली आधी सदी के परिणाम स्वरूप झाड़ियों की ओट लेकर भारतीय सेना की टुकड़ी धीरे-धीरे रेंगते हुए आगे बढ़ रही थी। ऐसी खूबसूरत फिजा, जिसमें सिर्फ माशूका का हाथ थामे खो जाने की ही ख्वाहिश हो, हथियारों को लादे घुटनों और केहुनी के बल रेंगते हुए टुकड़ी को लगातार ऊपर चढ़ना पड़ रहा था।
मई के पहले सप्ताह में आदेश पाकर यह टुकड़ी आनन-फानन कारगिल पहुंची थी। सैनिक अधिकारियों को अनुमान था कि इस बीहड़ क्षेत्र की सैकड़ों चोटियों पर पाकिस्तानी घुसपैठिये बंकरों में घुसकर इस घात में बैठे हैं कि भारतीय सेना की स्थिति कमजोर होते ही श्रीनगर से लेह जाने वाले हाईवे पर कब्जा कर पूरे पहाड़ी क्षेत्र पर अधिकार जमा लेंगे। अपने इस इरादे को पूरा करने के लिए पाकिस्तानी घुसपैठियों ने बड़े धीरज के साथ जाड़ा भर बंकरों में छिपे रहकर इंतजार किया था। हालांकि इसकी भनक पाकर ब्रिगेडियर सुरेन्द्र सिंह ने लगातार रक्षा विभाग के अधिकारियों को सूचित भी किया था पर सरकारी अमला तो दिल्ली से लाहौर को रवाना होने वाली बस की रवानगी की खुशी की खुमार में डूबा हुआ था। बहरहाल कुछ चरवाहों ने जब भारतीय सैन्य अधिकारियों को पाक घुसपैठियों की गतिविधियों से अवगत कराया तब कहीं सैन्य अधिकारियों, खासकर सरकार की गफलत टूटी।
कारगिल पर घुसपैठियों के कब्जे की खबर जब पूरी तरह फैल गयी तब रक्षा मंत्रालय ने थल सेना और वायुसेना की बटालियनों को तुरन्त श्रीनगर और कारगिल पहुंचने का आदेश दिया, जिसके बाद इस क्षेत्र में सेना की बटालियन और पत्रकार धड़ाधड़ पहुंचने लगे।
26-MAY-1999
आज आपरेशन विजय का नाम घोषित करते हुए मेजर ने हुक्म फरमाया- सैनिको. दुश्मनों पर विजय हासिल करना ही हमारा टारगेट है।
बस तब से भारतीय सैनिक छिपते-छुपाते दिनों-दिन आगे बढ़ रहे थे पर ऊंचाई पर बैठे दुश्मनों से वे कहां तक बच पाते। घुसपैठियों के वेश में पाकिस्तानी सैनिक उन पर गोलियां तथा मोर्टार व लांचरों से हमला कर रहे थे। बाध्य रेंगती भारतीय सैनिक टुकड़ियों को रुक-रुककर गोलीबारी का जवाब भी देना पड़ रहा था। भारतीय सैनिकों को अ तक पता चल चुका था कि घुसपैठिये सीमा नियंत्रण रेखा के इस पार कारगिल, बटालिक, द्रास और मुश्कोह घाटी के लगभग 70-80 किलोमीटर के दायरे में फैल गये हैं और भारतीय थलसेना तथा वायुसेना इन पहाड़ी क्षेत्रों में हमला कर इस क्षेत्र को पुनः अपने कब्जे में लेने की दुष्कर लड़ाई में जुटी थी। खासकर तब, जब पाकिस्तानी घुसपैठिये बंकरों में छिपे हुए हैं और शून्य से भी नीचे के तापमान पर भारतीय सैनिकों को रेंगते हुए आगे बढ़ना पड़ रहा है।
24 जून 1999
इसी प्रकार रेंगते-सरकते हुए अमरनाथ की टुकड़ी ने एक पहाड़ी चोटी को अपने कब्जे में कर लिया। यह पहाड़ी चोटी तोलोलिंग के पास ही टाइगर हिल, नॉल और प्वांइट 5140 नामक पहाड़ियों की उन चोटियों के पास था, जिन पर पाकिस्तानी घुसपैठिये जमे रहकर जोरदार लड़ाई लड़ रहे थे।
28 जून 1999
मेजर ने दो अन्य टुकड़ियों के साथ मिलकर अमरनाथ की इस टुकड़ी को टास्क दिया- 'रात में ही हमला कर टाइगर हिल पर कब्जा कायम करो।'
अमरनाथ अपने साथी सैनिकों के साथ तेज बर्फीली हवा और शून्य से भी नीचे के तापमान में घण्टों रेंगते हुए आगे बढ़ रहा था। मेजर ने आदेश दिया- 'आगे बढ़ो और दुश्मन पर अचानक हमला करो।' रात आधी बीत चुकी थी। दुश्मन के सिर पर पहुंच मेजर ने अमरनाथ और राघवन को आर्डर दिया- 'दुश्मन के बंकर के पास सावधाऩी से पोजीशन समझ कर आओ।'
अमरनाथ और राघवन रात के अंधेरे में घुल-मिल दबे पांव टोह लेकर वापस लौटे और मेजर को अवगत कराया। मेजर ने तुरंत आदेश दिया- 'दुश्मन को तीन ओर से घेरकर हमला करो।'
हमला शुरू होते ही दोनों ओर से गोलियां, ग्रेनेड, स्पेलेंडर, स्नाइपर बरसने लगे। अमरनाथ और राघवन पूरे जोशोखरोश में सबसे आगे थे। जोश में अमरनाथ ने छह और राघवन ने चार घुसपैठियों को मार गिराया। तभी अचानक कही से आई गोली ने राघवन का सीना छलनी कर दिया। राघवन को गिरते देख अमरनाथ किसी जुनूनी की भांति चीखते हुए घुसपैठियों पर टूट पड़ा। किसी उन्मादी की भांति झूमते हुए अमरनाथ आगे बढ़ता गया और दो मिनट में उसने घुसपैठियों के दो बंकरों को उड़ा दिया। बंकर उड़ते ही जोश में धड़धड़ाते हुए भारतीय टुकड़ी आगे बढ़ आई। हठात् किसी कोने से किसी घुसपैठिये की चलाई गोली अमरनाथ के सिर में लगी और वह तत्क्षण निष्प्राण वहीं गिर पड़ा। उसकी खुली आंखें नहीं देख पाईं कि उसके साथी सैनिकों ने कब बचे घुसपैठियों का खात्मा कर चोटी पर कब्जा जमा लिया।
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हुजूर ! सरकारी प्रचार तंत्र के बयान को आधार माना जाये तो इस 'युद्ध जैसी परिस्थिति' में अमरनाथ जैसे सैकड़ों जवानों ने अपनी जान गंवा विभिन्न पहाड़ी चोटियों पर पुनः कब्जा हासिल किया। पर इन सैनिकों की पीड़ा से अनजान सरकारी अमला इस कूटनीतिक गफलत में ही फंसा था कि इसे युद्ध घोषित किया जाये अथवा घुसपैठ। हरसंभव कूटनीतिक प्रयास जारी थे, यहां तक कि छिपे तौर पर दूत तक भेजा गया पर पाकिस्तानी हुक्मरानों की ओर से कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं मिल पा रही थी।
हुजूर ! हथियारों की तिजारत मं बड़ा ही मुनाफा है। लड़ाइयां पहले सीधे सीधे दो राजाओं, फिर दो देशों के बीच होती थीं पर अब उग्रवाद की आड़ में यह धंधा फल-फूल रहा था। कश्मीर की वादियां भी भला कैसे अछूती रहतीं।
खैर, जीवन और फूल हर परिस्थितियों में खिलते और मुर्झाते हैं। भले ही सियासी जंग मैदान में लड़ी जाये अथवा वाक्युद्ध के रूप में राष्ट्रसंघ के नकली अखाड़े में। अपनी जान जाते देख घुसपैठियों ने अपने फौजी शासकों और राजनीतिज्ञों पर दबाव डाला तो बाध्य होकर पाकिस्तानी प्रधानमंत्री चीन और अमेरिका का समर्थन हासिल करने गये। अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों के मद्देनजर मियां नवाज शरीफ को समर्थन नहीं मिला, विपरीत अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने दबाव डाला कि पाक घुसपैठियों की वापसी सुनिश्चित की जाये।
4 जुलाई 1999
नवाज शरीफ ने इस बात की लिखित सहमति बिल क्लिंटन को जताई और पाकिस्तान लौटे।
16 जुलाई 1999
पाकिस्तान और भारतीय सैन्य प्रमुखों की बैठक अटारी में हुई औऱ पाक घुसपैठियों के वापसी की समय सीमा निर्धारित की गयी।
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हुजूर ! इस अघोषित अनिर्णीत युद्ध में आहत भारतीय सैनिकों ने जब सरकार के इस राजनीतिक निर्णय को सुना तब उनका खूल खौल उठा। अपनी गफलत से अपनी ही जमीन को मुक्त कराने के लिए इतने सैनिकों का खून बहाना पड़ा तब थोड़ा और खून बहाकर आर-पार का ही फैसला हो जाता। जब अमेरिकी हस्तक्षेप की जरूरत ही थी, तो बेकार हमारा खून बहाया गया। मन मसोस भारतीय सैनिक आदेशों का पालन करते रहें।
26 जुलाई 1999
सेना की पंद्रहवीं कोर के लेफ्टिनेंट जनरल कृष्णपाल ने जब समूे कारगिल क्षेत्र को पाकिस्तानी घुसपैठियों से मुक्त घोषित किया तब कहीं सरकार ने चैन की सांस ली।
इस प्रकार अमरनाथ के जीवनावसान के साथ एक युद्ध का पटाक्षेप हुआ पर क्या जीवन के दर्द का चंद शब्दों में बखान किया जा सकता है...?
हुजूर ! हो सकता हो कि आपको अमरनाथ कम ही याद हो, क्योंकि आपने उसके साथ चंदेक घण्टे ही गुल्ली डंडा या फुटबाल के मैदान में गुजारे होंगे अथवा दूरदर्शन पर उसकी बहादुरी के किस्से अथवा फोटो देखकर अहसानमंद हैं कि अमरनाथ नामक सैनिक ने अपनी शहादत देकर भी सीमा को आपके लिए महफूज रखा। खैर, संभवतः थोड़ी देर के लिए सही, आप भी दुःखी जरूर हुए होंगे।
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दुःखी तो एकबारगी पूरा कस्बा भी हुआ थाष दर्द से अमरनाथ की पत्नी गौरी पछाड़ खा बेहोश हो जा रही थी। छाती कूट-कूट कर वह रो रही थी- 'अरे! रह जाते हम भूखे। कौन कुवक्त में उनसे कहा था नौकरी पकड़िये। क्या बाप-बड़े भाई की कमाई पर जिंदगी नहीं कटती है.. सुन लेते जिंदगी भर ताना। अब तो जिंदगी अंधार हो गयी, माई!अब मोर का होई, रे माई!'
सुनने वालों का कलेजा कभी टीसता, तो कभी वे कान बंद कर लेते। आखिर कौन कितनी देर तक किसी दूसरे के दुःख में साथ दे।
अमरनाथ का शव जब उस बबाली ताबूत (किस्सा कभी बाद में) में ऱखकर कस्बे में लाया गया तो लगा मेले का माहौल उमड़ आया। कलेक्टर, अफसरों की बात छोड़िये, पता नहीं कहां-कहां के मंत्र दरवाजे पर जुटने लगे। तरह-तरह के झंडे लेकर कहां से सैकड़ों लोग वहां पहुंच गये। सैनिक सलामी के बाद राइफल उलटी कर मातमी धुन बजाने के बाद जब अमरनाथ की चिता को आग लगायी गयी तो गौरी के बचे अरमान भी जलने लगे और चिता की लपटों में उसे जिंदगी का अंधकार दिख रहा था।
अमरनाथ का ही तो आसरा था उसे, अन्यथा बाबूजी, सास तथा जेठ-जेठानी का व्यवहार तो कहने लायक नहीं। जेठानी और सास की चक्की में पिसती गौरी को जीवनयापन की इस लड़ाई से निाल पाने वाले निर्णायक युद्ध में पराजित अमरनाथ ने गौरी का साथ हमेशा के लिए छोड़ दिया, जबकि कुछ दिनों पहले ही सेना में बहाल होने के बाद अमरनाथ ने सोचा था कि फैमिली क्वार्टर मिल जाने के बाद गौरी को साथ बुला लेगा पर अब तो गौरी की जिंदगी ही बेलगाम हो गयी। जलती चिता देखकर धार-धार बह रहे आंसुओं और विचारों पर रोक तब लगी, जब उसने केंद्रीय मंत्री को अपनी ओर देखते और घोषणा करते पाया-

कितने कारगिल और (संक्षिप्त कहानी )

कितने कारगिल और
कमलेश पांडेय

अमरनाथ कारगिल की चोटियों पर पाकिस्तानी घुसपैठियों से लड़ाई के दौरान शहीद हो जाता है। राज्य सरकार तथा केंद्र सरकार की ओर से लाखों रुपये मुआवजा की घोषणा उन सरकारों के बीच होड़ स्वरूप की जाती है। अमरनाथ का शव ताबूत में भर कर सरकार गांव में भिजवाती है तथा सैनिक सलामी के बीच उसका अंतिम संस्कार किया जाता है। दूर-दूर से लोग अंतिम यात्रा में भाग लेने जुटे हैं। उसकी पत्नी गौरी, मां, पिता, भाई, भाभी सब फूट-फूट कर रोते हैं। मंत्री सांत्वना देते हुए मुआवजा राशि की घोषणा करते हैं।
मुआवजा राशि को लेकर शहीद अमरनाथ के भाई-भाभी, मां-पिता रात को आपस में बहस करते हैं, जिसे गौरी सुन लेती है। उस मुआवजा राशि को हासिल करने के लिए उनमें आपस में ही काफी बहस होती है। पूरी बहस को सुनकर गौरी अवाक रह जाती है।
दूसरे दिन गौरी का भाई सुभाष आता है, जिसे गौरी सब बता देती है। वह उसे दिलासा देता है कि सावधान रहो तथा किसी भी हालत में दबना नहीं। और पैसे पर किसी का नाम नहीं चढ़ने देना।
यह सारी बातें गौरी की जेठानी सुन लेती है तथा वह अपने पति अमरनाथ को बताती है। अमरनाथ (गौरी के जेठ) उसे सावधानी बरतने तथा गौरी से नर्म व्यवहार बरतने को कहते हैं। सुभाष को बाहर निकलते देख उससे बड़े मीठे स्वर में अमरनाथ बात करते हैं तथा इशारे में कहते हैं कि सरकार अगर पैसा उनके नाम दे तो वे उसे ट्रैक्टर दिलाने में आर्थिक मदद करेंगे। लेकिन सुभाष बड़ी चालाकी से जवाब देता है कि वह अपनी बहन का पैसा नहीं लेगा।
इस बीच पेंशन के कागज आते हैं, जिनमें उत्तराधिकारी के रूप में गौरी का नाम लिखा था। अमरनाथ दबाव डालते हैं कि बैंक में खाता खोलकर पैसे भले ही गौरी जमा करवा ले लेकिन पैसों को निकालने का अधिकार वह अमरनाथ को सौंप दे। वे तर्क देते हैं कि औरत होकर तुम कहां बाहर-भीतर दौड़ोगी। गौरी अड़ गयी कि बैंक में उत्तराधिकारी के रूप में उसी के नाम का खाता खुलेगा।
थक-हार कर सब राजी हो जाते हैं। बैंक में खाता खुलवाने के बाद विजयी के तौर पर चहकते हुए गौरी घर आती है तथा मां को बताती है। मां ताना मारती है।
खैर, पैसे खाते में जमा होने लग गये। गौरी उन पैसों को नहीं निकालती थी। जब काफी पैसे जमा हो गये तब एक दिन अमरनाथ अपनी पत्नी के जरिये गौरी को बुलाते हैं तथा घर पक्का बनवाने के नाम पर पैसे मांगते हैं। गौरी पैसे देने से मना करती है। इस बात पर उनके बीच आपसे में झिक-झिक होती है। आपस में घरवाले सलाह करते हैं तथा वकील के पास जाते हैं।
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वकील सत्यप्रकाश सलाह देते हैं कि एक मुकदमा शुरू कर दिया जाये कि गौरी शहीद अमरनाथ के मरने से चार साल पहले ही अपनी इच्छा से घर छोड़कर चली गयी थी, इस कारण अमरनाथ के पेंशन पर उसका कोई हक नहीं है। लोक-लिहाज तथा पंचायत के अनुरोध के कारण अब तक हमने मुकदमा शुरू नहीं किया था, लेकिन वास्तविक उत्तराधिकारिणी नहीं होने के कारण कानूनन यह उचित नहीं है।
कोर्ट में मामला शुरू हो गया। मामला देखने के नाम पर सुभाष अपनी बहन से पैसे मांगता है।
कोर्ट में बहस शुरू होती है, जहां वकील एक ओर गौरी को अमरनाथ की पत्नी साबित करने की कोशिश करता है, वहीं विपक्षी वकील अपनी दलीलों से यह प्रमाणित करना चाहता है कि गौरी चार साल पहले उनमें आपसी रजामंदी से हुए तलाक के बाद घर छोड़कर चली गयी थी।
इसी बहसबाजी के बीच कोर्ट यह आदेश देती है कि पेंशन के उत्तराधिकारी के रूप में गौरी का नाम दर्ज रहेगा लेकिन विपक्षी वकील के दबाव के कारण जज आदेश देते हैं कि जब तक यह साबित नहीं हो जाता है कि गौरी शहीद की वास्तविक उत्तराधिकारी थी, तब तक बैंक खातों से पैसों की निकासी पर रोक लगा दी जाये। और वे मुकदमे की सुनवाई के लिए अगली तारिख दे देते हैं।
इस प्रकार साल-दर-साल काफी बहसबाजी होती है। ऊलजलूल के सवाल-जवाब आपस में वकील करते हैं। इस बीच गौरी अपना ससुराल छोड़कर अपने मायके में रहने चली जाती है। अंत में उसे मनाने के लिए अमरनाथ उसके मायके जाते हैं तथा समझाने की कोशिश करते हैं, लेकिन गौरी नहीं मानती है तथा ससुराल आने से मना कर देती है।
रामनाथ अपने वकील से मिलते हैं तथा कोई रास्ता निकालने को कहते हैं। वकील कहते हैं कि अगर किसी कारण से गौरी की मौत हो जाये, तब शहीद अमरनाथ के सबसे नजदीकी रिश्तेदार होने के नाते उसके पेंशन तथा मुआवजे की राशि आप लोगों को मिल सकती है।
रामनाथ को मानो रास्ता सूझ गया। सुभाष के घर रात में डकैत धावा मारते हैं। लूटपाट से कहीं अधिक वे घरवालों की तलाश कर रहे थे। किसी प्रकार जान बचाकर गौरी, सुभाष वहां से भाग निकलते हैं। अगले दिन मुकदमे की तारीख थी। सुभाष की मोटरसाइकिल पर बैठकर गौरी गंवई रास्ते से होते हुए कोर्ट की ओर जा रहे हैं। इस बीच कई मोटरसाइकिल सवार उन दोनों को घेर लेते हैं। मार-पीट कर वे सुभाष तथा गौरी को गोली मार देते हैं।
रामनाथ वहां आते हैं तथा सुभाष और गौरी के थैले की जांच पड़ताल करते हैं। रोटियां वहीं फेंक देते हैं तथा मुकदमे के कागजात और चेक लेकर चले जाते हैं। रोटियों पर कौवे टूट पड़ते हैं।