Friday, April 2, 2010

नफरत के खिलाफ

मतभेद होने का अर्थ
कदापि नहीं
सिर कलम कर दिये जाएं
मजबूत होने का अर्थ
कदापि नहीं
मासूम कलियों को मसल दें
राष्ट्रसंघ का अर्थ
कदापि नहीं
धृतराष्ट्र की भांति चुप्पी साध लें
राजनीति का अर्थ
कदापि नहीं
घुटना ही टेकते रहें
इन्सान होने का अर्थ
कदापि नहीं
स्वार्थ में बुश-ब्लेयर हो लें
कवि होने का वास्तविक अर्थ
नफरत और जंग के खिलाफ
हमेशा कलम थाम लें।

कारगिल- नाम भर

कारगिल
सिर्फ एक नाम है
दरअसल
नफरत को चाहिए होता है
एक अदद चेहरा।
चोटी, दाढ़ी, पगड़ी, क्रास
जब तक जीवन में खास
यकीन मानिए
कसोवो, बटालिक हो या द्रास
लहरायेगी
धरती पर
खून सनी घास।

चांद और उलाहना

कल रात
खिड़की पर टंगा चांद
सारी रात देता रहा उलाहना-
क्यों मैं भर रहा हूं
उसके सीने में अंगार?
बूढे सफेद दढ़ियल पहाड़ ने भरी थी
हौले से सांस
हांफते स्वर बोला-
बेटा, मैंने दिये खूबसूरत मंजर
पर खून सने तेरे खंजर
और सीने पर सवार
तुम बो रहे हो नये रक्तबीज।
चांद और पहाड़
अब खामोश हैं
कल के सूरज में
नफरत की तपिश है
खिड़कियों पर यह कैसी
दस्तक है?

यक्ष प्रश्न-२

बहुधा
एक ही सच के उत्तर की तलाश
रहती है हमें
पर नहीं
अक्सर हम अपने
सवालों को ही नहीं जानते
ठीक वैसे- जैले
अनजाने-अपरिचित रहते हैं
अपने ही चेहरे।
प्रश्न अपना संदर्भ ही खो देते हैं
अथवा
स्वयं हम उत्तर देना नहीं चाहते
अनुत्तरित रह जाता है
सदा से ही
यक्ष प्रश्न।
विखंडित स्वरूप की पहचान
करती है सदा विचलित
और रह जाता है
सदा ही अनुत्तरित
सवालों में झांकता
अपना ही चेहरा।
सवाल और चेहरे
सदा से भयद्रावक/अविश्लेषित
उंगलियों और प्रश्नों का
अपनी ओर उठना खतरनाक
रह जाता है
बहुधा
सच
इसीलिए
अनुद्घाटित।

यक्ष प्रश्न-१

कई बार
यह प्रश्न सालता है मुझे-
दुनिया जो मिली ऍसी
क्या ऍसी ही मिलनी चाहिए थी
या
जो दुनिया हम छोड़ जायेंगे
ऍसी ही छोड़ कर जाना चाहिए
हमें
अक्सर यह प्रश्न मथता है-
हममें से कइयों को कई बार,
क्या
सबको यह नहीं मथना चाहिए?
कई बार
सोचता हूं
संगीत के ऊपर भी
तारी क्यों हैं
भाषण/नारे/बम/ विस्फोटों की आवाज
अक्सर
हममें से कई
इस पर सोचते हैं
कई बार
पर क्या
सबको नहीं सोचना चाहिए?
कल "ककहरा" सीखते
बालक ने पूछ लिया सवाल
"इन्सान क्या होता है?"
हत्वाक सोचता रह गया मैं
क्या
इस सवाल का जवाब
हमें नहीं ढूंढना चाहिए?

गलती क्या

गलती क्या, जो हम पर यह सितम हुआ
कहा तुमने, जो कुछ हुआ पर कम हुआ
अब दें हम किस किस को वफा का इम्तहान
कान बंद रखा जमाने ने, इसी का गम हुआ
कल तक था जो लफ्ते जिगर
बदल मुखौटा अपना कातिल ए हमदम हुआ
हवा चली ऍसी, उठते जो दुआ-सलाम में हाथ
उनमें खूं से तर त्रिशूल औ खंजर हुआ
कल बिखरा था सड़क पर दुधमुंहे भारत का लहू
देखा जो मंजर यह दिल पुरनम हुआ
अब किस भगवान- अल्लाह को ढूंढने जाते हो अहमक
बदलते दौर में आदमी फिर नंगा आदम हुआ।

अंधेरा

अंधेरा
कई बार
अपने मन से उपजता है
भयभीत होने के लिए
जरूरी नहीं
किसी अजाने से रूबरू होना
बस
अपने में सिकुड़ते जाना काफी है
कल
नयी सुबह होने तक
धड़कता रहेगा
हृदय
काली खोह के
किसी
अपरिचित कोने से।

पकेगा क्या?

लंबी रातें काटी मुट्ठियां तान
सपने बोयें खेत-खलिहान
सपनों के जब अंकुर फूटे
उन सबने मिलकर लूटे
रोकूं कैसे
अपने हाथ- बिखरे-छोटे
सूख गया है उत्स
रीता है कोना
भूल गया हंसना
अब तो सिर्फ रोना
सुलग नहीं रहा है चूल्हा
उबल नहीं रहा है कुछ
बुझ गयी है आग
बची है राख
पकेगा क्या?

अबकि वोट

अबकि वोट
मैंने देखा
पार्टी ने खींची लच्छमण रेखा
वोटर निकले प्रतिशत पांच
जानो बात यह बिलकुल सांच
फिर भी सत्तर फीसदी पोलिंग की माया
थर-थर कांपे वोट की काया
लोकतंत्र का यह अद्भुत खेल
विपच्छी पोलिंग एजेंट थे बूथ से रेल