कल
मैंने बहुत कोशिशें की
तुम्हें पुकारूं
कई बार आवाजें दीं
पर
गला रूंधा ही रहा
नहीं निकल रही थी
कोई आवाज
महसूस हुआ
गले में बंधा है
कोई पट्टा
जिसके दबाव में
चुप है मेरी जुबान।
चाहा
उतार फेंकू
उसे पर नामुमकिन
पट्टा रूप बदलता रहा
बहुरूपिया की भांति
कभी
भूख/ अहम / जरूरत/ समय की मांग
बन जकड़े रखा गला।
जानता हूं
गले का घुटे रहना
जुबान का बंद होना
काफी कष्टकर
सामने
तुम प्रिय
पर
बंद जुबान
किसी ने सच ही कहा था-
चलो हो चुका मिलना
न तुम खाली / न हम खाली।
साथी
सच है
तुम बिन
बात अधूरी
जीवन अधूरा।
-०-
कमलेश पांडेय
Wednesday, September 16, 2009
Friday, September 4, 2009
अभिव्यक्ति के खतरे
मैं अक्सर
चुप ही रहता हूं
क्योंकि
अभिव्यक्ति के खतरे बहुत हैं।
मेमने की तरह मिमियाते भी
लोमड़ियां अपने दांत पैना करने लगती हैं।
अक्सर
ऍसा होता है
नहीं चाहते हुए
हमारी दुम हिलने लगती है।
मैं नहीं समझ पाता -
आदमी क्यों कर डर जाता है
एक दूसरे से ?
सच
जान भी होंठ
चुप्पी साध लेते हैं
अखबारों की सुर्खियां
झूठ परसते नहीं थकतीं
किंतु
भूख से कांपते होंठों पर
जयकार टिका रहता है।
सच कहता हूं
अंधेरा घना है
ऍसे में
बोलने का खतरा
उठाना कठिन
पर
नहीं बोलने व मुर्दा पड़े होने में
कोई विशेष फर्क नहीं
सो
मैं बोलता हूं
आप सब से कुछ
फुसफुसाते हुए गुपचुप
यकीन मानिये
हममें से
अधिकतर
आज ऍसा ही करते हैं।
-०-
कमलेश पांडेय
चुप ही रहता हूं
क्योंकि
अभिव्यक्ति के खतरे बहुत हैं।
मेमने की तरह मिमियाते भी
लोमड़ियां अपने दांत पैना करने लगती हैं।
अक्सर
ऍसा होता है
नहीं चाहते हुए
हमारी दुम हिलने लगती है।
मैं नहीं समझ पाता -
आदमी क्यों कर डर जाता है
एक दूसरे से ?
सच
जान भी होंठ
चुप्पी साध लेते हैं
अखबारों की सुर्खियां
झूठ परसते नहीं थकतीं
किंतु
भूख से कांपते होंठों पर
जयकार टिका रहता है।
सच कहता हूं
अंधेरा घना है
ऍसे में
बोलने का खतरा
उठाना कठिन
पर
नहीं बोलने व मुर्दा पड़े होने में
कोई विशेष फर्क नहीं
सो
मैं बोलता हूं
आप सब से कुछ
फुसफुसाते हुए गुपचुप
यकीन मानिये
हममें से
अधिकतर
आज ऍसा ही करते हैं।
-०-
कमलेश पांडेय
कंक्रीट का जंगल
छोटे से ताल में
उतरे हैं
धवल पाखी
कंक्रीट के इस जंगल में।
धड़के हैं
हौले से कुछ शब्द
किसी के सीने में
सफेद पन्नों पर उतर आये हैं
रक्ताभ, उष्मित शब्द।
कविता बनती है
पढ़ी, गुनी जाती
भुला- बिसरा दी जाती है।
नित्य पंख पसार
उड़ते आते हैं
श्वेत श्याम पाखी
जन्म लेती है
नित्य नयी कविता
पर
पाखियों की भांति ही
महाकाश में विलीन हो जाती है
अपनी जगह
बदस्तूर
मुस्कराता है
कंक्रीट का जंगल।
-०-
कमलेश पांडेय
उतरे हैं
धवल पाखी
कंक्रीट के इस जंगल में।
धड़के हैं
हौले से कुछ शब्द
किसी के सीने में
सफेद पन्नों पर उतर आये हैं
रक्ताभ, उष्मित शब्द।
कविता बनती है
पढ़ी, गुनी जाती
भुला- बिसरा दी जाती है।
नित्य पंख पसार
उड़ते आते हैं
श्वेत श्याम पाखी
जन्म लेती है
नित्य नयी कविता
पर
पाखियों की भांति ही
महाकाश में विलीन हो जाती है
अपनी जगह
बदस्तूर
मुस्कराता है
कंक्रीट का जंगल।
-०-
कमलेश पांडेय
कसी लगाम
मैं
कई बार
कुछ कहना चाहता हूं
पाता हूं
मुंह पर कसी है
लगाम
और अब वे
सपनों पर भी हक जमाने की कर रहे हैं
आपस में बात।
हम
धृतराष्ट्र बनने को अभिशप्त
कारण
दौड़ रहा है
हमारी धमनियों में उनका नमक
व
टंगी है हमारी आंखों
भयावह कल की तस्वीरें।
सच
हममें से हरेक
जानता- पहचानता है
पर
धर्मराज युधिष्ठिर तक ने सिखायी है
हमें भाषा- नरो वा कुंजरो की।
बड़ा ही अच्छा लगता है
अपनी छोटी जरूरतों को
पूरा होते देखना।
भूल जाता है आदमी
सपनों के टूटने की पीड़ा
बस उसे साधनी पड़ती है
धृतराष्ट्र होने की कला।
-०-
कमलेश पांडेय
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