Friday, August 4, 2023

चल मेरे घोड़े टिक-टिक-टिक


कमलेश पांडेय
इस कस्बे में साल में एक बार तो जैसे जान आ ही जाती है। कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर हर साल संकरे से नाले के किनारे मैदान में मेला लगता है, जिसमें तमाम जगहों से आये दुकानदार रंगबिरंगे कपड़ों की छोलदारियों से अपनी चलताऊ दुकानें सजाते हैं। कम से कम बीस-पच्चीस दिनों तक आस-पास के दसों कोस के गांवों के लोगों का जमावड़ा इस मेले में जुटता ही रहता है। पान, कपड़ा, चूड़ी से लेकर थेटर, सरकस क्या नहीं जुटता है, इस कस्बाई मेले में। आस-पास के गांवों की औरतें रोज हैसियत भर बन-संवर कर आपस में मेल-मुलाकात के बहाने या घर से बाहर निकलने के लिए टिकुली, सिदूर जैसी जरूरी सामानों को खरीदने के बहाने आती हैं। माताओं के पीछे बंदरी फौज का आना स्वाभाविक है। बस उसी बंदरी फौज के चलते खिलौने वाले भी अपनी दुकानें इस कस्बे में हर साल लाते हैं।
बच्चों की इस चहल-पहल तथा औरतों व मर्दों के इस रोज के आवागमन से कस्बे में बीस-पच्चीस दिनों के लिए एक रौनक सी छा जाती है। हालांकि इस मेले से कस्बे के निवासी बहुत ज्यादा उल्लसित नहीं दिखते हैं, क्योंकि उनके लिए इसमें ऐसा कुछ अनोखा नहीं रहता है। परंतु वे निरपेक्ष भी नहीं रह पाते हैं तथा मेला शुरू होने के चार-पांच दिनों बाद वे भी अपनी निष्क्रियता तोड़ मेले में जुट जाते हैं तथा रोज शाम उनके कदम खुद ब खुद मेले की ओर चल पड़ते हैं। इस प्रकार मेला धीरे-धीरे जोर पकडऩे लगता है।
मेला कस्बे में बांध के ठीक नीचे लगता है, जहां से उस नाले के लिए ढलान शुरू हो जाती है। बांध के ठीक ऊपर रघुआ अपनी मड़ई में रोज रात मेले वालों को कोसता रहता है। रोज देर रात तक मेला घूमने वाले हल्लागुल्ला मचाये रखते हैं। तिस पर सैकड़ों दुकानदार और बिकने को आये हजारों मवेशी आस-पास इतनी गंदगी फैला देते हैं कि सांस लेना तक दूभर हो जाता है। हालांकि बीस-पच्चीस दिनों तक बिजली की चकमक रोशनी के बीच गंवईं औरतें भी इस कस्बे में जान डालती सी लगती हैं।
खैर, इस बार रघुआ खुश था। उसका बेटा सोनू इस समय यहीं था। संयोगवश पिछले दो-तीन साल मेले के समय वह लगातार अपने मामा के यहां था। इस बार उसे मेले में घुमाने का बड़ा आनंद आयेगा। रघुआ कचहरी पर जूते गांठने और पालिश करने का काम करता है। जैसे-तैसे दाल-रोटी का जुगाड़ बैठ ही जाता है। आज महंगाई के इस जमाने में अक्सर लोगों ने बचत के ख्याल से प्लास्टिक के जूते व चप्पल पहनने शुरू कर दिये हैं, इस तर्क के साथ कि बरसात में जूते खराब हो जाते हैं, या इन चप्पलों में हवा काफी अच्छी लगती है। हाथ पैर धोने में बड़ी आसानी रहती है, ऐसे में आप रघुआ की परेशानी समझ ही सकते हैं। वैसे रघुआ बड़ा ही गमखोर है। अपनी बात वह किसी से कहता नहीं है, नहीं बेमतलब की बात करता है।
बहरहाल रघुआ ने सोच रखा था कि वह सोनू को मेला घुमायेगा, अत: दो-चार दिनों से उसने छिटपुट पैसे बटोरने शुरू कर दिये थे। सोचा था, सोनू को इस मेले में वह कोई नई शर्ट पैंट भी दिला देगा। जी-जान से रघुआ अपनी इस सोच को पूरा करने में जुट गया था। रघुआ के हाथों जूते काफी तेज चमकने लगे थे।
जैसे-तैसे करके रघुआ ने आठ-नौ दिनों तक कटौती करके पचास रुपये जमा कर लिए थे। अब सोनू को लेकर मेले में जाया जा सकता है। शाम को काम से लौटकर रघुआ सरकारी हैंडपंप पर न सिर्फ अपने शरीर को ही मल- मलकर नहाया बल्कि आज उसने सोनू को भी खुद अपने ही नहलाया।
रघुआ की घरवाली अवाक थी। ..क्या बात है, आज रघु इतना खुश क्यों है?..
पूछा भी-.. कहीं जाना है क्या?..
रघुआ ने कहा - ..हां! चलो आज मेला चलते हैं।..
रघुआ की पत्नी अवाक रह गयी। सोचने लगी - ..क्या बात है? आज अचानक रघु तैयार हो गया है। दो दिनों पहले तक तो मेले के नाम से ही बिदक जाता था, आज अचानक कैसे तैयार हो गया?..
आश्चर्य में डूबी वह मड़ई के भीतर आई। तभी रघुआ ने बदन पोंछते हुए कपड़े मांगे।
उसकी बीवी ने आदतवश जेब में हाथ डाल दिये। देखा एक नया-नकोर पचास का नोट। उसे आश्चर्य हो आया? ..रोज तो कितनी किल्लत की बात करता है और फिर सारा पैसा तो वह खुद रखती है, खर्च करती है, ऐसे में रघुआ के पास पचास का नोट?..
उसे रहा नहीं गया। पूछ ही बैठी -.. ये पचास का नोट कैसा है?..
सोनू को कपड़े पहनाता हुआ रघुआ बोला -.. चलो, मेला चलेंगे। वहां तुम्हारे लिए कुरती तथा सोनू के लिए कपड़ा खरीदेंगे।..
बीवी ने फिर दुहराया -.. पर पैसा आया कहां से, किसी से कर्ज लिया क्या?..
रघुआ ने मुस्कराते हुए कहा -.. नहीं भाई, मेहनत कर मेले के लिए बचाया है। अब चलो भी जल्द तैयार हो जाओ।..
उत्फुल्ल मन रघुआ की बीवी भी जल्द मेले के लिए तैयार होने लगी। सोनू के तो पैर ही जमीन पर नहीं पड़ रहे थे। थोड़ी देर बाद ही पचास का नया-नकोर नोट जेब में धरे रघुआ अपनी बीवी और बच्चे के साथ गर्व से इठलाता मेले की ओर बढ़ता जा रहा था।
अगल-बगल की गंवईं औरतों को देख रघुआ ने बीवी से चुहल की।
..देखो, कैसे कपड़ा पहनी है, देखो वो कैसे पाउडर पोते है, मानो मुंह में आटा थोप कर चली आई है।..
तुनक कर बीवी ने जवाब दिया- ..ऊ सब पाउडर पोते, चाहे लाली लगाये, तुमको का, तुम अपना देखो।..
..हा..हा..हा, अपना का देखें, रोज तो तुमको देखते ही हैं। आज मौका है, देखने दो...।..
..धत, सीधे चलो..- कहते हुए उसकी बीवी ने सबकी नजर बचाते हुए उसे एक धौल लगाई।
इसी तरह ठिठोलियां करते हुए वे मेले में पहुंच गये। तमाम रंगबिरंगी सजी दुकानों और लोगों के बीच रघुआ और उसकी बीवी, बच्चा मानो खो गये।
बजाज पट्टी में रघुआ की बीवी ने रघुआ के काफी इसरार करने पर एक ब्लाउज ले ली। पूरे बीस रुपये की। आज के पहले इतनी महंगी ब्लाउज उसने कभी नहीं पहनी थी। अत: गर्व से अपने रघु की ओर देखे जा रही थी। अब वे तीनों सोनू के कपड़ों के लिए आगे बढ़ चले। सोनू ने अपने लिए जो कपड़ा पसंद किया; दुकानदार उसे पचास रुपये से नीचे देने के लिए तैयार ही नहीं हो रहा था। जैसे-तैसे काफी हील हुज्जत और नाटक के बाद रघुआ ने उसे पैंतालिस रुपये में इस शर्त पर मनाया कि वह बाकी रुपये दो दिनों बाद दे जायेगा। सोनू वह कपड़ा लेकर उछलने लगा। रघुआ और उसकी बीवी दोनों फूल उठे। वहां से अब तीनों आगे बढ़े।
पर पता नहीं क्यों, रघुआ को अब मेले की रौनक फीकी लगने लगी। एकाध जगह उसकी बीवी दुकानों पर ठिठकी भी फिर झट आगे बढ़ चली। सोनू यहां वहां आइसक्रीम और मूंगफली खाने के लिए चिल्लाने लगा। वह तो भला हो सोनू की मां का। दो-चार रुपये उसने चुरा रखे थे। वरना मेले में सोनू काफी ऊधम मचा देता।
काफी देर तक इधर उधर भटकने के बाद वे तीनों लौटने लगे। सोनू थक गया था। पर खिलौना मंडी में आते ही जैसे सोनू की सारी थकान खो गयी। एक-एक दुकान पर वह अडऩे लगा। पहले तो रघुआ ने उसे फुसलाया, ..चलो, बेटा बहुत देर हो गयी है। घर चलो.. पर सोनू माने कैसे?
ढेर सारे बच्चे खिलौने खरीद रहे थे। वहीं खेल भी रहे थे। भला...सोनू कैसे चल देता? एक दुकान पर अड़ ही गया। वह तो सिर हिलाता जोकर तथा बड़ा सा लकड़ी का झूलता घोड़ा लेगा ही।
रघुआ काफी असमंजस में फंस गया। पैसे पास में हैं ही नहीं। दाम पूछ कर भी क्या फायदा?
जैसे-तैसे वह सोनू को समझाने लगा, पर सोनू माने तब न! उसने मानो जिद ही पकड़ ली थी।
बाध्य हो उसे मेले में ही दो-चार हाथ जमाये रघुआ ने। सिसकता सोनू वहीं जमीन पर लोट गया।
जैसे-तैसे रघुआ की बीवी ने फुसलाकर उसे गोद में उठाया और तब सब भारी मन से घर लौटे। घर पहुंचकर भी सोनू चुप नहीं हुआ। सिसकते-सिसकते ही वह सो गया। उसके नये कपड़े उपेक्षित से पड़े रहे। रात में सोते समय बिस्तर पर रघुआ की बीवी ने हौले से कहा -.. उसके लिए खिलौना खरीद ही देते। देखा नहीं, कितना सुबक रहा था।...
..अच्छा, खरीद देंगे.. कहते हुए भारी मन से रघुआ ने करवट बदल ली।
सुबह उठते ही रघुआ ने मन में ठान लिया कि वह सोनू को खिलौने लाकर जरूर देगा। अभी मेला उठने में चार-पांच दिन बाकी है। तब तक वह कुछ पैसे जमाकर ही लेगा।
कुछ पैसों को जमा करने के बाद रघुआ दो-तीन दिनों बाद मेले में अकेले पहुंचा। पर लकड़ी के झूलते घोड़े और सिर हिलाते जोकर की कीमतें तो उसके जमा किये पैसों से दोगुनी थीं। हताश हो उसने मिट्टी का सिर हिलाता जोकर तथा मिट्टी का ही एक बड़ा घोड़ा खरीद लिया। घर आकर उसने सोनू को पहले सिर हिलाता जोकर दिया। सोनू उछलने लगा। फिर उसे अपने घोड़े की याद आई। उसने पूछा -... बापू! मेरा घोड़ा कहां है?...
तब रघुआ छिपाकर रखे मिट्टी के घोड़े को सामने लाया और फुसलाते हुए सोनू से कहा -... बेटा! वह घोड़ा भाग गया और यह छोटा घोड़ा उसी का बच्चा है। तुम इसको अपने पास रखो। रोज घास-पत्ती खिलाओ। बड़ा होकर यह तुमको भी झुलायेगा।...
सोनू अपने बाप के कहे में आ गया। झट मिट्टी के घोड़े को थोड़े घास-पात नोच कर खिलाने तथा झूमने लगा।
रघुआ कभी अपने बच्चों की आंखों में झांकती खुशी की चमक को देखता तो कभी मेले की फीकी लग रही रोशनी को। पर इन सबसे बेखबर सोनू गाये जा रहा था... चल मेरे घोड़े टिक..टिक..टिक।
मेले में बदस्तूर रोशनी का चरखा घूमे जा रहा था।