Monday, March 22, 2010

प्रेम से देखिये तो सही!

जब आप फूलों को पहचानना छोड़
साइबर नेट में उलझे होते हैं
नासिका रंध्रों में जानी पहचानी
बारूदी गंध छाई होती है,
बच्चों के हाथ घरौंदे बनाने में, नहीं
खिलौना पिस्तौल चलाते होते हैं,
ऐसे में भी
कभी-कभी, कहीं-कहीं
वासंती बयार झूम ही आती है।
जब रात भयावह लंबी हो उठती है
सूरज को पहचानना भी मुश्किल
समाया होता है हरिण की आंखों में
भेडिय़े का खौफ
हाँ!
ऐसा होता है,
जब हमारे यहां चुनावी मौसम होता है
ऐसे में भी
कभी-कभी, कहीं-कहीं
वासंती बयार झूम ही आती है।
आपने कहा- बुरा समय है।
रोटी महंगी- सस्ती मजदूरी
सस्ता खून- महंगा पानी
मैंने माना- सच है
लड़कपन खोया, भूली जवानी
खटे नौकरानी, मजे भोगे रानी
परंतु
जीने को, गम मिटाने को
आसरा एक चाहिए ही होता है।
तल्ख वीराने में जब
छोड़ जाते हैं सब साथ
ऐसे में भी
कभी-कभी कविता
कहीं-कहीं
वासंती बयार झूम ही आती है।
कल रात
वसंत ने मेरा दरवाजा खटखटाया, पूछा-
क्या मैं आऊं?
मैंने कहा-
पृथ्वी पर स्वागत है।
आओ, उतरो हर घर-आंगन।
पूछा उसने-
पर कहां?
जल रही हर आंख में आग
ऐसे में कवि किस झंझट में घसीटते हो?
घर के कोने में बिठाना छोड़
दुनिया में जाने को कहते हो!
तभी
अबोध बालिका मेरी आई
वसंत को देख खिलखिलाई।
निश्छल किलक देख
वसंत भी मुस्काया।
कभी-कभी, कहीं-कहीं
वासंती बयार ऐसे ही झूम आती है?
रात जब दोपहर सी तपने लगे
बात गोली सी लगने लगे
फूल आंखों में चुभने लगें
ऐसे में
वसंत भला कैसे आये?
जब तक किसी की आंख न प्रेम झांक मुस्कराये।
यकीन मानिये!
वसंत आता ही है
कितना भी विपरीत हो मौसम
कितना भी विपरीत हो जीवन
ऐसे में भी
कभी-कभी, कहीं-कहीं
वासंती बयार झूम ही आती है।
बस, जरा-
आप प्रेम से देखिये तो सही।
कमलेश पांडेय