Sunday, February 22, 2009
Tuesday, February 10, 2009
राजरंग
बढता चल तू , चाहे सामने हो अग्रिपथ कमलेश पांडेय
और हादसों भरा साल बीत ही गया। कैसी बिडंबना है कि अधिकतर समय साल बीतते-बीतते कोई न कोई जख्म दे जाता है। पिछले कुछ सालों से ऐसा ही दस्तूर बना हुआ है। कभी सुनामी, कभी अन्य प्राकृतिक दुर्घटनाएं, तो कभी संसद भवन पर हमला जैसे मानव जनित कांड। लेकिन इस साल नवंबर महीने में ही महज दस पाकिस्तानी युवकों ने मुंबई में इस कदर तबाही मचायी, जिसे बरसों भुला पाना संभव नहीं होगा। काम से लौट रहे तथा अन्य स्थानों के लिए रवाना होने शिवाजी छत्रपति टर्मिनल स्टेशन पर पहुंचे आम यात्रियों पर अत्याधुनिक आग्रेयास्त्रों से ताबडतोड गोलीबारी, कामाजी अस्पताल के सामने एसटीएफ के प्रमुख हेमंत करकरे, पुलिस के अतिरिक्त कमिश्नर अजय कामटे तथा अधिकारी विजय सालेस्कर को गोलियों से छलनी कर दिया जाना, सोलह पुलिस अधिकारियों, जवानों की शहादत, कई विदेशी तथा सैकडों बेकसूर आम लोगों की मौत को इतनी सहजता से भुलाया नहीं जा सकता है।
इस आतंकी घटना में पकडे गये एकमात्र जीवित पाकिस्तानी आतंकवादी अजमल आमिर कसाब ने स्वीकार किया है कि उस जैसे कई युवकों को लश्कर ए तैयबा की ओर से आतंकवादी हमले का प्रशिक्षण पाकिस्तान में दिया गया था। एक जिन्स की पैंट अपने गरीब रेहडी लगाने वाले पिता द्वारा नहीं दे पाने के कारण, घर छोड देने वाले कसाब ने आम लोगों की तरह पहले दिहाडी मजदूरी, फिर छोटे-मोटे अपराध किये। पर महात्वाकांक्षा उसे लश्कर ए तैयबा के चंगुल तक ले गयी। जिहाद के नाम पर भारत में मुसलमानों पर हो रहे कथित अत्याचार की वीडियो क्लिपिंग दिखा उसके मन में भारत के प्रति नफरत भरा गया। कमोबेश यही किस्सा अन्य पाकिस्तानी युवा आतंकवादियों के साथ भी घटा होगा। अपने वास्तविक दुश्मन से अनजान ये गुमराह युवा सहजता से ऐसे सियासतदानों के हत्थे चढ जाते हैं, जिनका मजहब दीन- ईमान नहीं बल्कि आतंक फैलाने के नाम पर दुनिया से इमदाद बटोरना है। धर्म के नाम पर धंधा बडा ही सहज होता है। बाज लोग सहजता से बहकावे में आ जाते हैं। सोचने- समझने की जहमत कौन मोल ले? कसाब भी कौन सा पढा लिखा समझदार था ? महज सात- आठ दर्जे तक पढा लडका। इस्लाम के नाम पर कुर्बान होने पर जन्नत मिलने और कुर्बान होने पर उसके परिवारवालों को डेढ लाख रुपये का मुआवजा मिलने का भरोसा। इतना काफी था, दुनिया से ऊबे युवा के गुमराह होने के लिए। जब बडे बडे विद्वान भी सामयिक भावनाओं में बह जाते हैं तथा समय तथा काल के सापेक्ष बयान जारी कर आग को बढावा देने लगते हैं, ऐसे में कुछ नासमझ युवकों के पास इतनी समझ ही कहां कि वे विचार कर पाते कि उनकी इन हरकतों का परिणाम क्या होगा? अब देखिये किस प्रकार केंद्रीय अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री ए आर अंतुले ने आतंकवादी हमले के दौर में हेमंत करकरे तथा अन्य दोनों अधिकारियों की शहादत पर ही सवाल खडा कर खुद तो अपनी फजीहत करायी ही, वहीं कांग्रेस को भी कटघरे में खडा कर दिया है। भले ही उन्होंने इस्तीफा दे दिया है लेकिन वे अपने सवाल पर डटे हुए हैं कि आखिरकार ये तीनों अधिकारी 26 नवंबर की रात कामा अस्पताल क्यों गये थे? अंतुले ने साफ- साफ तो नहीं कहा लेकिन इशारा सीधे सीधे साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर तथा मालेगांव विस्फोट से जुडे सैनिक अधिकारियों की सांठगांठ के जांच कार्य की ओर कर रहा था, जो आतंकवादी निरोधक दस्ता के प्रमुख हेमंत करकरे की निगरानी में जारी था। अंतुले ने खुल कर तो कुछ नहीं कहा लेकिन उनका संकेत था कि कहीं इन अधिकारियों की हत्या में मालेगांव विस्फोट से जुडे लोगों के हाथ तो नहीं थे? बहरहाल शहीद हेमंत करकरे की मौत के बाद गुजरात की भाजपा सरकार की ओर से शहीद की विधवा के लिए आर्थिक मदद की पेशकश की गयी, जिसे शहीद हेमंत की पत्नी ने नकार दिया। दुर्भाग्य है कि देश में सुरक्षा के मुद्दे पर भी जमकर राजनीति की जाती है। आरोप- प्रत्यारोप के बीच घोटाले भी देश में आम हैं। देश की जनता बोफोर्स तोप के नाम पर देश में वर्षों से जारी राजनीति से भली भांति परिचित है। इसी प्रकार सन 1992 में उछला श्रीरामचंद्र जन्मभूमि बनाम बाबरी मस्जिद का मुद्दा भी कथित बाबरी मस्जिद के ढांचे के टूट जाने के बाद अदालतों की धूल फांक रहाहै। मंदिर बनाने के लिए देश भर से एकत्र क्ये गये ईंट पता नहीं कहां की धूल फांक रहे हैं? चंदे का हिसाब मांगना तो भगवान के काम में पाप ही होगा? रामलला मंदिर से बेघर हो गये हैं तथा इन दिनों कडे पहरे में अस्थायी मंदिर में विराज रहे हैं। दरअसल इस मौके पर इस घटना की याद इसलिए आवश्यक है क्योंकि समझदारी से इतर देश का मध्यमवर्गीय समाज सामयिक धार्मिक, जातिगत तथा भाषाई उन्माद में डूब जाता है और लम्हों की खता को सदियां भुगतती हैं। धर्म की सही व्याख्या के अभाव में कठमुल्लापन आम मानसिकता पर हावी हो जाता है और षडंत्रकारी दिमाग बखूबी इन स्थितियों को भुनाना अच्छी तरह जानते हैं। कुछ लोगों के लिए राजनीति उनका धर्म होती है तो कुछ धर्म को ही अपनी राजनीति का आधार बना लेते हैं। कसाब तथा उसके समान दसों पाकिस्तानी युवकों के मन में इसी धार्मिक असहिष्णुता को उकसावा देकर उन्हें ऐसे अमानवीय कार्य के लिए प्रेरित कर पाना अत्यंत सहज था। देश को याद है, प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की सन 1984 में उनके दो सिख अंगरक्षकों द्वारा हत्या किये जाने की सूचना देश में फैलते ही हजारों निरपराध सिख परिवारों को किस कदर त्रासदी झेलनी पडी थी? आगजनी, हत्या, लूटपाट की बातों को याद दिलाने की आवश्यकता है क्या ? बहुत ही आसान होता है किसी की ओर उंगली उठा देना। परंतु याद रखने की जरूरत है कि किसी की ओर उंगली उठाने पर तीन उंगलियां हमें भी अपनी जांच पडताल करने को कहती हैं। बात भले ही कटु लगे लेकिन हमें ठहर कर सोचने की जरूरत है कि हमारे देश में धर्म, राजनीति, विश्वास, विकास, सहयोग, सहज व स्वस्थ जीवन के प्रति हमें कौन सा रवैया अपनाने की जरूरत है ? दुर्भाग्य है कि हम धर्म का मसला धार्मिक ठेकेदारों तथा राजनीति का मसला अधकचरे राजनीतिज्ञों पर छोड देते हैं, जो स्थितियों को हमारे लिए इतनी जटिल कर देते हैं कि हमारे सामने संस्कारों से जकडी हमारी मानसिकता के साथ बहकने के सिवा हमारे पास कोई चारा ही नहीं बचता है। हम सब कमोबेश उन्माद के शिकार सहजता से हो जाते हैं। आक्रोश के क्षणों में विवेक को खोकर महज तात्कालिक प्रतिक्रिया जताने में ही हमारी सार्थकता खत्म हो जाती है। द्विराष्ट्र के आधार पर भारत के विभाजन के बाद मिली आजादी के उपरांत पाकिस्तान के हुक्मरान तो पेट पर कपडे बांध कर हजार सालों तक भारत के साथ युद्ध करने के नारे लगा बाहबाही लूटने की कोशिश करते हैं, जबकि हकीकत में युद्ध के कारण वहां परिस्थितियां बिगडती ही गयीं। जिस मुहम्मद अली जिन्ना ने पाकिस्तान का सपना देखा और पाकिस्तान के निर्माण में जिनकी अहम भूमिका रही, उन्होंने भी वहां जम्हूरियत (लोकतंत्र) की ही कल्पना की थी, न कि उसके इस्लामिक राष्ट्र के स्वरूप की। बहरहाल बाद में इस्लामिक राष्ट्र घोषित होने के बाद भी क्या वहां इस्लामिक व्यवस्था (समानता का अधिकार)कायम है? लगातार फौजी शासकों के उलट-फेर के बीच वहां की जनता अपने लोकतांत्रिक अधिकारों से वंचित है तथा शासन के नाम पर वहां भी उन्हें शोषण का शिकार होना पड रहा है। कश्मीर का मुद्दा पाकिस्तान सालों से उछालता रहा है, जबकि दुनिया जानती है कि पाक कबायलियों के हमले से लाचार होकर कश्मीर रिसायत के राजा हरि सिंह ने भारत में अपनी रिसायत का विलय कर दिया था। वहीं पाकिस्तानी कब्जे वाले आजाद कश्मीर की क्या स्थिति है, दुनिया वाले बखूबी जानते हैं। धर्म के आधार पर किसी राष्ट्र की सार्वभौमिकता हमेशा कायम रहेगी, इस अवधारणा को भी पूरी तरह नकारते हुए तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में भाषायी आंदोलन तथा शोषण के खिलाफ मुक्ति संग्राम के नेतृत्व में आंदोलन छिडा, फलस्वरूप सन 1972 में बांग्लादेश नामक राष्ट्र का अभ्युदय हुआ। इस युद्ध में भारत और विशेषकर तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की भूमिका इक कदर अहम थी कि वह चोट अब तक पाकिस्तान नहीं भूल पाया है। इन बातों का प्रतिशोध वहां के हुक्मरान, फौज तथा आईएसआई वाले घुसपैठ तथा अन्य आतंकवादी तरीकों व जाली नोटों, मादक पदार्थों की तस्करी द्वारा ले रहे हैं। वहीं बांग्लादेश की आजादी के समय भारत में शरणार्थियों की संख्या इस कदर बेतहाशा बढी कि आज देश के सामने यह एक प्रमुख समस्या है। साथ ही सीमा पर भ्रष्ट सुरक्षाकर्मियों के कारण बांग्लादेश से मानव, हथियारों तथा उपभोक्ता सामग्रियों की तस्करी सरेआम जारी है। आज भारत में मुस्लिम समुदाय के साथ शोषण का आरोप लगाने वाले पाकिस्तान में झांक कर देखें, मस्जिदों में नमाज के दौरान चलती गोलियों की आवाजें उन्हें सुनायी देंगी। कई बार शिया व सुन्नियों के झगडे के बीच वहां सडकों पर टैंक तक उतारनी पडी है। कर्ज में डूबे बांग्लादेश तथा पाकिस्तान के विकास पर उन्हें नजर दौडानी चाहिए। किंतु हमारे देश में भी बडी विडंबनाएं हैं। एक ओर देश चांद पर पहुंच रहा है, वहीं अब तक हम सब देश में आम लोगों तक विकास के संसाधन नहीं पहुंचा पाये हैं, जिसके कारण उपजे विभेद से भारी असंतोष पनप रहा है। कभी देश के महज 6 जिलों में माओवादियों की पैठ थी लेकिन अब आंध्रप्रदेश, उडीसा, बंगाल, झारखंड,महाराष्ट्र, छत्तीसगढ, उत्तरप्रदेश के कई जिलों में माओवादियों का प्रभाव क्यों चिंताजनक रूप से बढ रहा है, इस पर ध्यान दिये जाने की जरूरत है। हिंसा हमें कहीं नहीं पहुंचाती। दहशतगर्दी से कुछ भी हासिल नहीं होता। इस बात को समझने और समझाने की निहायत जरूरत है। जरूरत है लोकतंत्र में दबे कुचले लोगों के आवाजों को बुलंद करने की। इसके लिए लोकतंत्र में तमाम व्यवस्थाएं हैं। संगठित होकर समाज में पिछडे लोग सामने आयें। अपने अधिकारों के प्रति सचेत हों। यह उनका नैतिक कर्तव्य है।
Monday, February 9, 2009
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