Friday, April 2, 2010

चांद और उलाहना

कल रात
खिड़की पर टंगा चांद
सारी रात देता रहा उलाहना-
क्यों मैं भर रहा हूं
उसके सीने में अंगार?
बूढे सफेद दढ़ियल पहाड़ ने भरी थी
हौले से सांस
हांफते स्वर बोला-
बेटा, मैंने दिये खूबसूरत मंजर
पर खून सने तेरे खंजर
और सीने पर सवार
तुम बो रहे हो नये रक्तबीज।
चांद और पहाड़
अब खामोश हैं
कल के सूरज में
नफरत की तपिश है
खिड़कियों पर यह कैसी
दस्तक है?

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