Friday, April 2, 2010

पकेगा क्या?

लंबी रातें काटी मुट्ठियां तान
सपने बोयें खेत-खलिहान
सपनों के जब अंकुर फूटे
उन सबने मिलकर लूटे
रोकूं कैसे
अपने हाथ- बिखरे-छोटे
सूख गया है उत्स
रीता है कोना
भूल गया हंसना
अब तो सिर्फ रोना
सुलग नहीं रहा है चूल्हा
उबल नहीं रहा है कुछ
बुझ गयी है आग
बची है राख
पकेगा क्या?

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