Wednesday, September 16, 2009

बात अधूरी/ जीवन अधूरा

कल
मैंने बहुत कोशिशें की
तुम्हें पुकारूं
कई बार आवाजें दीं
पर
गला रूंधा ही रहा
नहीं निकल रही थी
कोई आवाज
महसूस हुआ
गले में बंधा है
कोई पट्टा
जिसके दबाव में
चुप है मेरी जुबान।
चाहा
उतार फेंकू
उसे पर नामुमकिन
पट्टा रूप बदलता रहा
बहुरूपिया की भांति
कभी
भूख/ अहम / जरूरत/ समय की मांग
बन जकड़े रखा गला।
जानता हूं
गले का घुटे रहना
जुबान का बंद होना
काफी कष्टकर
सामने
तुम प्रिय
पर
बंद जुबान
किसी ने सच ही कहा था-
चलो हो चुका मिलना
न तुम खाली / न हम खाली।
साथी
सच है
तुम बिन
बात अधूरी
जीवन अधूरा।
-०-
कमलेश पांडेय

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