Friday, September 4, 2009

कंक्रीट का जंगल

छोटे से ताल में
उतरे हैं
धवल पाखी
कंक्रीट के इस जंगल में।
धड़के हैं
हौले से कुछ शब्द
किसी के सीने में
सफेद पन्नों पर उतर आये हैं
रक्ताभ, उष्मित शब्द।
कविता बनती है
पढ़ी, गुनी जाती
भुला- बिसरा दी जाती है।
नित्य पंख पसार
उड़ते आते हैं
श्वेत श्याम पाखी
जन्म लेती है
नित्य नयी कविता
पर
पाखियों की भांति ही
महाकाश में विलीन हो जाती है
अपनी जगह
बदस्तूर
मुस्कराता है
कंक्रीट का जंगल।
-०-
कमलेश पांडेय

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