Friday, September 4, 2009

अभिव्यक्ति के खतरे

मैं अक्सर
चुप ही रहता हूं
क्योंकि
अभिव्यक्ति के खतरे बहुत हैं।
मेमने की तरह मिमियाते भी
लोमड़ियां अपने दांत पैना करने लगती हैं।
अक्सर
ऍसा होता है
नहीं चाहते हुए
हमारी दुम हिलने लगती है।
मैं नहीं समझ पाता -
आदमी क्यों कर डर जाता है
एक दूसरे से ?
सच
जान भी होंठ
चुप्पी साध लेते हैं
अखबारों की सुर्खियां
झूठ परसते नहीं थकतीं
किंतु
भूख से कांपते होंठों पर
जयकार टिका रहता है।
सच कहता हूं
अंधेरा घना है
ऍसे में
बोलने का खतरा
उठाना कठिन
पर
नहीं बोलने व मुर्दा पड़े होने में
कोई विशेष फर्क नहीं
सो
मैं बोलता हूं
आप सब से कुछ
फुसफुसाते हुए गुपचुप
यकीन मानिये
हममें से
अधिकतर
आज ऍसा ही करते हैं।
-०-
कमलेश पांडेय

1 comment: